lord shiva and shaivism

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भगवȡन Ǔिव एवȲ िȰव दिशन Ȫफȯसर महȡवȢर सरन जȰन ǒिदȯव (ƺȡ, ǒवणǕ, महȯ ि) मɅ भगवȡन महȯि अȡशत् Ǔिव सȲहȡर कȯ दȯवतȡ हɇ । Ǔिव कȡ िȡǔददक अश हȰ 'िǕ', 'कयȡण', 'मȲगल', 'ȯयकर' आǑदǑहदǗ धमȡशवलǔबियɉ मɅ वȰणव एवȲ िȰव सबदȡयɉ कȯ अनǕयȡǓययɉ कȧ सयȡ सवȡशǓधक हȰ। िȰव वह धȡǓमशक सबदȡय हȰ जȪ Ǔिव कȪ हȣ ईर मȡनकर आरȡधनȡ करतȡ हȰ। सȲगतȬ यह भȢ उलȯनȢय हȰ Ǒक अǓधकȡȲि समकȡलȢन ǑहदǗ धमȡशवलबिȢ सभȢ सबदȡयɉ कȯ आरȡयɉ कȧ आरȡधनȡ करतȯ हɇ ; Ǔिव, रȡम, कǙण, दǕगȡश आǑद सभȢ दȯवȢ-दȯवतȡओȲ कȧ पǗजȡ करतȯ हɇ। सबǓत, भगवȡन Ǔिव कȪ लय कर, ǒववȯचनȡ कȧ जȡ रहȣ हȰ। नाम और महिमा Ǔिव कȯ अनȯक वȡचक हɇ,भगवȡन Ǔिव कȯ अनȯक नȡम हɇ : 1. ǽ ( जȪ दǕɉ कȡ Ǔनमȡशण व नȡि करतȡ हȰ) 2. पिǕपǓतनȡ ( पिǕ पǔियɉ व जȢवȡमȡओȲ कȯ वȡमȢ) 3.अधशनȡरȣर ( Ǔिव और िǒि कȡ Ǔमलन) 4. महȡदȯव ( सभȢ दȯवɉ मɅ ȯस, महȡन ईरȣय िǒि) 5. भȪलȡ( कȪमल ǿदय, दयȡलǕ एवȲ भिवसल) 6. ǓलȲगम (सबपǗणश ƺȡȲड कȡ तȢक) 7.नटरȡज ( नǙय कȯ दȯवतȡ) । ȡदि यȪǓतǓलɍगɉ कȯ नȡम भȢ Ǔिव कȯ हȣ वȡचक हɇ तȡ उनकȯ सȡ Ǔिव कȯ महव कȧ गȡȡएȱ भȢ जǕडȣ हǕई हɇ। यȯ Ǔनबन हɇ - 1.ओȲकȡरȯर ( मȲगलकȡरȣ) 2. कȯ दȡरनȡ ( Ǒहमȡलय कȯ कȯ दȡर पवशत कȯ वȡमȢ) 3. घǕमȯर (सतȢ Ǔिवभि घǕमȡ कȯ आरȡय हȪनȯ कȯ कȡरण घǕमȯर महȡदȯव कȯ नȡम सȯ ǒवयȡत) 4. यबिकȯर ( तȢन नȯ िɉ वȡलȯ ईर) 5. नȡगȯर ( नȡगɉ कȪ धȡरण करनȯ वȡलȯ) 6. भȢमिȲकर ( भȢमकȡय वǾप मɅ कट हȪकर ǒिपǕरȡसǕर कȪ परȡǔजत करनȯ वȡलȯ िȲकर) 7. महȡकȡलȯर ( Ǔिव कȡ लयकतȡश कȡ Ǿप) 8. मǔलकȡजǕशन वȡमȢ ( अचशनȡ मɅ अǒपशत चमȯलȢ जȰसȯ Ǔमलकȡ पǕपɉ कȪ हण करनȯ वȡलȯ) 9. रȡमǓलȲगȯर ( लȲकȡ पर चढȡई करनȯ कȯ पǗवश भगवȡन रȡम ȡरȡ ȡǒपत एवȲ उपȡǓसत ǓिवǓलȲग) 10. ǒवनȡ ( Ǔिव कȯ ǒििǗल पर ǔत कȡिȢ अवȡ वȡरȡणसȢ मɅ ǒव कȯ नȡ) 11. वȰनȡ ( आयǕवȶद आचȡयɟ कȯ नȡ) 12. सȪमनȡ ( वह ȡन जहȡȱ Ǔिव कȪ

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The purpose of this document is to present a comprehensive survey of different names and forms of Shiva, the destroyer among the “Great Trinity” and “Supreme Brahman” among the Shaivites or in Shaivism, historical development of “Rudra” and “Shiva”, Jyotirlinga temples and other famous temples of Lord Shiva. The present document intended to give an exposition of different sects of Shaivism, mainly Pashupatas, Kapalikas, Nathas, Shaiva-Siddhant and Tamil Shaivism, Kashmir Shaivism and Veer- Shaivism or Lingayatas on the basis of the original texts and commentaries. The author has discussed the views of other writers also to give a clear, comprehensive and critical account of the philosophical systems of these sects or school of Shaivism. Throughout the exposition of these different systems, the author has tried to be fair and impartial to them and to present the fundamentals in as clear and correct manner, without going in details. Ignorance of various symbolic terms of Shaivism is profound in general readers. An attempt has been made to mention the various symbolic meanings of Shiva lingam and iconic attributes of anthropomorphic images of Shiva and also the importance of Shiva Ratri, the main festival of Shaivites.

TRANSCRIPT

भगवान शिव एवं िैव दिशन प्रोफेसर महावीर सरन जैन

त्रिदेव (ब्रह्मा, त्रवष्णु, महेि) में भगवान महेि अर्ाशत ्शिव संहार के देवता हैं । शिव का िाब्ददक अर्श है 'िुभ', 'कल्याण', 'मंगल', 'श्रयेस्कर' आदद। दहन्द ूधमाशवलब्बियों में वैष्णव एवं िैव सबप्रदायों के अनुयाशययों की सख्या सवाशशधक है। िैव वह धाशमशक सबप्रदाय है जो शिव को ही ईश्वर मानकर आराधना करता है। प्रसंगतः यह भी उल्लेखनीनीय है दक अशधकांि समकालीन दहन्द ूधमाशवलबिी सभी सबप्रदायों के आराध्यों की आराधना करते हैं; शिव, राम, कृष्ण, दगुाश आदद सभी देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। सबप्रशत, भगवान शिव को लक्ष्य कर, त्रववेचना की जा रही है। नाम और महिमााः

शिव के अनेक वाचक हैं,भगवान शिव के अनेक नाम हैं :

1. रुद्र ( जो दखुनीों का शनमाशण व नाि करता है) 2. पिुपशतनार् ( पिु पब्ियों व जीवात्माओं के स्वामी) 3.अधशनारीश्वर ( शिव और ित्रि का शमलन) 4. महादेव ( सभी देवों में श्रषे्ठ, महान ईश्वरीय ित्रि) 5. भोला( कोमल हृदय, दयालु एवं भिवत्सल) 6. शलंगम (सबपूणश ब्रह्मांड का प्रतीक) 7.नटराज ( नतृ्य के देवता) । द्वादि ज्योशतशलिंगों के नाम भी शिव के ही वाचक हैं तर्ा उनके सार् शिव के महत्व की गार्ाएँ भी जुडी हुई हैं। ये शनबन हैं - 1.ओंकारेश्वर ( मंगलकारी) 2. केदारनार् ( दहमालय के केदार पवशत के स्वामी) 3. घशु्मेश्वर (सती शिवभि घुश्मा के आराध्य होने के कारण घुश्मेश्वर महादेव के नाम से त्रवख्यात) 4. त्र्यबिकेश्वर ( तीन नेिों वाले ईश्वर) 5. नागेश्वर ( नागों को धारण करने वाले) 6. भीमिंकर ( भीमकाय स्वरूप में प्रकट होकर त्रिपुरासुर को पराब्जत करने वाले िंकर) 7. महाकालेश्वर ( शिव का प्रलयकताश का रूप) 8. मब्ल्लकाजुशन स्वामी ( अचशना में अत्रपशत चमेली जैसे शमल्लका पुष्पों को ग्रहण करने वाले) 9. रामशलंगेश्वर ( लंका पर चढाई करने के पूवश भगवान राम द्वारा स्र्ात्रपत एवं उपाशसत शिवशलंग) 10. त्रवश्वनार् ( शिव के त्रििूल पर ब्स्र्त कािी अर्वा वाराणसी में त्रवश्व के नार्) 11. वैद्यनार् ( आयुवदे आचायों के नार्) 12. सोमनार् ( वह स्र्ान जहाँ शिव को

प्रसन्न करने के शलए चदं्रमा ने रोदहणी के सार् स्पिश शलंग की पूजा की अर्वा अपने मब्स्तष्क पर चदं्रमा को धारण करने वाले शिव) उनके अनेक रूपों में उमा-महेश्वर, अर्द्शनारीश्वर, पिुपशत, कृत्रिवासा, दब्िणामूशतश तर्ा योगीश्वर आदद अशत प्रशसर्द् हैं। अनेक ग्रंर्ों एवं लेखनीों में भगवान शिव के 1008 नामों का उनके अर्ों तर्ा व्याख्याओं सदहत त्रववरण शमलता है। उपयुशि वब्णशत नामों एवं रूपवाचकों के अशतररि जो और नाम अपेिाकृत अशधक प्रशसर्द् हैं, वे अकारादद क्रम से शनबन हैं :

1. अघोरनार् 2. आिुतोष 3. ईिान 4. उमेि 5. कामेश्वर 6. कैलािनार् 7. गंगाधर 8. शगरीि 9. चदं्रिेखनीर 10. जटाधर 11. त्रिलोचन 12. नीलकंठ 13. भूतनार् 14. भैरव 15. महेि 16. िंकर 17. िंभु 18. िशिधर।

पुराणों में वब्णशत शिवस्तुशत में उनके अनेक ऐसे नाम भी शमलते हैं जो जैन धमश के प्रर्म तीर्िंकर आददनार् अर्वा ऋषभदेव के शलए भी प्रयुि होते हैं : वषृभ, वषृभध्वज, वषृांक, ददगबिर, ददग्वस्त्र, ददग्वास, जटी, चारुकेि, जटा-भार-भास्वर, ऊध्वशरेतेसु, ऊध्वेन्द्र, तपोमय, िान्त, इब्न्द्रयपशत, अिोभ्य, अदहंसचदैकतान, ज्ञानी-वजे्र-संहनन, त्रपब्छिकास्त्र। डॉ. हीरालाल जैन ने शिव-रुद्र एवं जैन धमश के प्रर्म तीर्िंकर ऋषभदेव अर्वा वषृभनार् अर्वा आददनार् की समानता के अनेक प्रमाण प्रस्तुत दकए हैं। ( देखनीें – रचना और पुनरशचना, पषृ्ठ 172 – 175, डॉ. भीमराव अबिेदकर त्रवश्वत्रवद्यालय, आगरा, (नवबिर, 2000))। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यत्रि की चेतना के अन्तशयामी हैं । इनकी अर्द्ािंशगनी (ित्रि) का नाम पावशती है और इनके पुि स्कन्द और गणेि हैं । भगवान शिव का पररवार केवल पत्नी पावशती एवं पुि स्कंद एवं गणेि तक ही सीशमत नहीं है; एकादि रुद्राब्णयाँ, चौसठ योशगशनयाँ तर्ा भैरव आदद इनके सहचर और सहचरी हैं। शिव के रूप : पंचमुखनीी महादेव के पाँच मुखनीों के नाम हैं – (1) ईिान (2) तत्पुरुष (3) वामदेव (4) अघोर (5) सद्योजात। सवशव्यापी शिव को पथृ्वी में िवश, जल में भव, अब्ग्न में पिुपशत, वायु में ईिान, आकाि में भीम, सूयश में रुद्र, सोम अर्ाशत ्चदं्रमा में महादेव और यज्ञदक्रया में उग्र मूशतश रूप में ददखनीाया जाता है। इन्हें अष्टमूशतशया ँकहा जाता है। शिव महायोगी हैं। शनराकार रूप में इनकी पूजा शलंग के रूप में होती है । िैव मत में वे सतृ्रष्ट की उत्पत्रि, ब्स्र्शत एवं संहार के अशधपशत हैं । शिव और ित्रि में अदै्वत है। शिव के हृदय में

ित्रि का और ित्रि के हृदय में शिव का वास है। चदं्र और चाँदनी ब्जस तरह से अशभन्न हैं, उसी तरह से शिव-ित्रि भी अशभन्न हैं। ब्जस प्रकार वैष्णव पुराणों में त्रवष्णु के दि (10) अवतारों की गार्ाएँ वब्णशत हैं, उसी प्रकार िैव पुराणों में शिव-ित्रि अर्वा शिव-पावशती के दि अवतारों की गार्ाएँ शनिर्द् हैं। इनके नाम हैं : (1) महाकाल-महाकाली (2) तारण-तारा (3) िाल-िालभुवनेिी (4) षोडि-षोडिी (5) भैरव-भैरवी (6) शिनमस्त-शिनमस्ता (7) धमूवान-धमूवती (8) िगलामुखनी-िगलामुखनीी (9) मातंग-मातंगी (10) कमल-कमला। द्वादि ज्योशिशलिंगाः

देि में िारह ज्योशतशलिंग प्रशसर्द् हैं ब्जनके दिशन की कामना प्रत्येक शिवभि को रहती है। इन 12 ज्योशतशलिंगों में से 9 की ब्स्र्शत शनत्रवशवाद है। इनके नाम हैः

1. सोमनार् (गुजरात में वेरावल के पास)

2. महाकालेश्वर ( मध्य प्रदेि के उज्जैन नगर में)

3. ओंकारेश्वर ( मध्य प्रदेि में इंदौर के पास)

4. केदारनार् (उिराखनीडं के रुद्रप्रयाग नगर से 86 दकलोमीटर दरू। गौरीकुण्ड से 14

दकलोमीटर की पद यािा।)

5. त्रवश्वनार् (उिर प्रदेि के वाराणसी नगर में)

6. त्र्यबिकेश्वर (महाराष्ट्र में नाशसक ब्जले में गोदावरी के उद्गम-स्र्ल के पास)

7. रामशलंगेश्वर ( तशमलनाडु में रामेश्वरम ्में)

8. घुश्मेश्वर ( महाराष्ट्र में औरंगािाद ब्जले में दौलतािाद स्टेिन से 20 दकलोमीटर दरू)

9. श्री सैलम-मब्ल्लकाजुशन मंददर(आंध्र प्रदेि के कुरनूल ब्जले में घने जंगलों के िीच)

अन्य तीन ज्योशतशलिंगों की भौगोशलक ब्स्र्शत के िारे में शनबन दावेदार हैं और प्रत्येक स्र्ान के गाइड एवं पंदडत-पुरोदहत अपने-अपने पि में प्रमाण प्रस्तुत करते हैं :

10. भीमिंकर – (अ) महाराष्ट्र में पुणें के पास सह्यादद्र पवशत पर

(आ) उिराखनीडं में कािीपुर के पास मोटेश्वर मंददर

11. वैद्यनार् – (अ) झारखनीडं के देवघर में ब्स्र्त

(आ) महाराष्ट्र के िीड ब्जले में परभणी रेलवे जंकिन के पास परली में

(इ) दहमाचल प्रदेि के कांगडा ब्जले में पालमपुर से लगभग 14

दकलोमीटर दरू िैजनार् मंददर

12. नागेश्वर - (अ) गुजरात में जामनगर ब्जले में द्वारका के पास नागेश्वर मंददर

(आ) उिराखनीडं में अल्मोडा से 36 दकलोमीटर दरू जागेश्वर मंददर

(इ) महाराष्ट्र के दहंगोली ब्जले में औधंा नागनार् मंददर

पंच ित्त्वों में व्यक्ताः

भगवान शिव सवशव्यापक हैं। दब्िण भारत में भगवान शिव की सवशव्यापकता को व्यि करने के शलए उन्हें जल, अब्ग्न, वायु, पथृ्वी और आकाि – इन पाँचों तत्त्वों में व्यि दकया गया है। इस दृत्रष्ट से तशमलनाडु में शतरुशचरापल्ली में जल या नीर(जंिूकेश्वरार या जबिूकेश्वर), शतरुअन्नामलै में अब्ग्न (अन्नामशलयार या अरुणाचलेश्वर), कांशचपुरम में पथृ्वी (एकंिरेश्वर), शचदंिरम ् में आकाि (नटराज), तर्ा आंध्र प्रदेि में शतरुपशत से 36 दकलोमीटर की दरूी पर श्री कालहब्स्त में वायु (श्री कालहस्तीश्वर स्वामी) के शिव मंददर प्रशसर्द् हैं।

अन्य प्रशिद्ध मंहदर िथा पववत्र स्थलाः

भगवान शिव के भारत तर्ा भारतेतर देिों में असंख्य मंददर हैं। उपयुशि वब्णशत ज्योशतशलिंगों के अशतररि भारत के प्रत्येक िेि में अनशगनत िवै मंददर त्रवद्यमान हैं। सिका त्रववरण ही नहीं, नामोल्लेखनी करना भी सबभव नहीं है। राज्यवार अपेिाकृत अशधक प्रशसर्द् एवं मान्य मंददरों के संकेत इस प्रकार हैं :

(1) िशमलनाड ाः

अगे्रजी त्रवदकपीदडया के अनुसार तशमलनाडु में लगभग 2500 प्रशसर्द् िवै मंददर त्रवद्यमान हैं।

http://en.wikipedia.org/wiki/Shiva_Temples_of_Tamil_Nadu

शतरसठ (63) शिवभि “नायनारों” या “नायनमारों“ के सादहत्य में प्रशसर्द् िैव मंददरों का वणशन शमलता है ब्जनकी संख्या 264 है।

रामेश्वर के रामशलंगेश्वर के अशतररि शनबन त्रवश्व प्रशसर्द् िैव मंददर हैं -

(1) एकंिरेश्वर एवं (2) कैलाि नार्रः कांचीपुरम ्में

(3) अन्नामशलयार या अरुणाचलेश्वरः शतरुअन्नामलै में

(4) जबिूकेश्वरः शतरुशचरापल्ली में

(5) िहृदेश्वर या राजराजिेखनीर या पेरुवयुददयारः तंजावुर में

(6) अशध कंुिेश्वरः तंजावुर से 45 दकलोमीटर दरू कंुिकोनम ्में

(7) ऐरावतेश्वरः तंजावुर ब्जले में कंुिकोनम ्के पास

(8) संगमेश्वरः इरोड ब्जले में भवानी में

(9) मीनािी-सुन्दरेश्वरः मदरैु में

(10) पापनासम ्रेलवे स्टेिन के चतुददशक शिव-मंददर-समूहः शतरुनलवेली के पास

(11) नटराज शिव मंददरः शचदंिरम ्में

इनके अशतररि कोयंितूर ब्जले के (12) ध्यानशलंग मंददर की भी अपनी त्रवशिष्ट पहचान है तर्ा

चेन्नई के (13)कत्रपलेश्वर एवं (14) मरंुदीश्वरार मंददर भी उल्लेखनीनीय हैं।

(2) आंध्र प्रदेिाः

श्री सैलम-मब्ल्लकाजुशन तो ज्योशतशलिंग है ही; शनबन मंददर भी उल्लेखनीनीय हैं :

(क) रायलसीमा िेिः

(1) श्री कालहब्स्तः शचिूर ब्जले में स्वणशमुखनीी नदी के तट पर। (2) पब्ल्ल कोण्डेश्वरः शचिूर ब्जले में ही। (3) जगन्नार् गटटूः कनूशल िहर के पास।(4) जगन्नार् गटटूः कनूशल िहर के पास। (5) वीरभद्रः अनंतपुर के पास।

(खनी) तेलंगाना िेिः

(6)कालेश्वरम ्: करीमनगर ब्जले में करीमनगर िहर से 125 दकलोमीटर दरू।(7) वेमुलनाडः इसकी पहचान दब्िण की कािी के रूप में भी होती है। करीमनगर िहर से 35 दकलोमीटर दरू (8) कीसरगुटटाः रंगारेड्डी ब्जलें में हैदरािाद से लगभग 40 दकलोमीटर दरू

(3) कनााटकाः

(क) परुानी मद्रास रेजीडेंसीः

(1) श्री मंजुनारे्श्वरः धमशस्र्ल।(2) श्री कदरी मंजुनार्ः मंगलौर में।(3) श्री महाशलंगेश्वरः मंगलौर से 52 दकलोमीटर दरू पुिूर में।

(खनी) पुराना िबिई सूिाः

(4) महािलेश्वरः उिर कन्नड ब्जले के गोकणश िहर में।(5) मुरुदेश्वरः उिर कन्नड ब्जले की भटकल तहसील के कस्िे में अरि सागर के तट पर। लेखनीक ने कनाशटक में ब्जन मूशतशयों के दिशन दकए हैं, उनमें सवाशशधक ऊँची, भव्य एवं शचिाकषशक प्रशतमाएँ दो हैं : (क) श्रवणिेलगोल नगर में जैन धमश के भगवान गोबमटेि िाहुिली की प्रशतमा (खनी) इस मंददर के िाहर नव-शनशमशत शिव प्रशतमा। (6) कंुडलसंगमः िासवेश्वर के वीरिैव या शलंगायत संप्रदाय का प्रधान कें द्र। िासवेश्वर-समाशध के अशतररि स्वयंभू शलंग। िागलकोट ब्जले के अल्माटी िाँध से लगभग 15 दकलोमीटर दरू। (7) अर्द्शनारीश्वर, (8) 18 भुजाओं वाले नटराज एवं (9) भूतनार्ः ये तीनों िीजापुर ब्जले में िादामी नगर में। (10) मब्ल्लकाजुशन मंददर समूहः िीजापुर ब्जले में िादामी के पास पटटाडकल में।(11) महादेवः कोप्पल ब्जले के यालिुगाश ताल्लुका के पास इतगी गाँव में।(12) सोमेश्वर मंददर समूहः गडक ब्जले के शिरहटटी ताल्लुका में लक्ष्मेश्वर में।(13) शसरे्द्श्वरः हवेरी ब्जले के हवेरी नगर में।

(ग) पुराना मैसूर राज्यः

(14) श्री कांतेश्वरः मैसूर से 23 दकलोमीटर दरू ननजनगुड में, ब्जसे दब्िण की कािी की माना जाता है। । (15) भोगानदंीश्वर, (16) उमा-महेश्वर एव ं(17) अरुणाचलेश्वरः ये तीनों िंगलुरु से 60 दकलोमीटर दरू नंदी दहल्स पर।(18) त्रवरूपािः िेल्लारी ब्जले में तुंगभद्रा नदी के तट पर हंपी में।(19) कोदटशलंगेश्वरः कोलार ब्जले में। इसे त्रवश्व का सिसे िडा शलंग माना जाता है।

(4) केरलाः

(1)अलुवा का शिव मंददरः एनाशकुलम ्ब्जले में कोची से लगभग 20-21 दकलोमीटर दरू अलुवा में पेररयार नदी और सहायक नदी मंगलापुझा के िीच ब्स्र्त शिव शलंग। महाशिवरात्रि के अवसर पर िहुत िडी संख्या में श्रर्द्ालु आते हैं। (2)शर्रुवलूर महादेवः एनाशरुलम ्ब्जले में। (3) कत्रवयूर महादेव एवं (4) शर्ररप्पारा शिवः दोनों पर्नामर्ीटा ब्जले में (5) आनन्देश्वरम ्: अलप्पुजा ब्जले में (6) वामटपल्लै महाशिवः कोटटायम ब्जले में। (7) वडक्कुमनार्ः त्रिचरू में ब्स्र्त।(8)शिव मंददरः त्रिचरू ब्जले में पोनकुन्नम ्में। (9) राजराजेश्वरः कन्नूर ब्जले में।

(5) मध्य प्रदेिाः

महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर के अशतररि शनबन मंददर उल्लेखनीनीय हैः(1) कंदररया महादेवः (खनीजुराहो)।(2) जटािंकरः होिंगािाद ब्जले के पचमढी में।(3) शिव मंददरः (खनीरगौन(पब्िमी शनमाड) ब्जले के चोली में)।(4) केदारेश्वरः शिवपुरी ब्जले के पोहरी में।(5) गुपे्तश्वरः हरदा ब्जले के चारुवा गाँव में।(6) पिुपशतनार्ः मंदसौर में।(7) भोजपुर का मंददरः भोपाल से 28 दकलोमीटर दरू।

(6) छत्तीिगढाः

(1) भोरमदेवः किीरधाम ब्जले में कवधाश से 18 दकलोमीटर दरू चौरागाँव में।(2) शिव-ित्रिः दगुश ब्जले के अमलेश्वर नगर में माँ पीताबिरा िगलामुखनीी मंददर में शिव-ित्रि एवं भैरव की प्रशतमाएँ हैं।(3) कत्रपलेश्वर शिव मंददर समूहः दगुश ब्जले के िालोद में।(4)कुलेश्वरः रायपुर से दब्िण ददिा में 45 दकलोमीटर की दरूी पर राब्जम नगर में।(4) कालेश्वरनार्ः जांजगीर-चाबपा ब्जले के जांजगीर मुख्यालय से 11 दकलोमीटर दरू पीर्मपुर में।

(7) उत्तराखडंाः

केदारनार्, जागेश्वर एवं मोटेश्वर ज्योशतशलिंगों के अलावा शनबन मंददर भी उल्लेखनीनीय हैं।

(क) कुमाऊँ िेि में : (1) िालेश्वर महादेवः चपंावत ब्जले में।

(खनी) गढवाल िेि में :

(2) गोपेश्वर या गोपीनार्ः चमोली ब्जले में गोपेश्वर िहर में।(3) पुराना त्रवश्वनार् मंददरः रुद्रप्रयाग ब्जले के गुप्त कािी में।(4)तुंगनार्ः पंचकेदार के केदारनार् के अशतररि कल्पेश्वर, रुद्रनार्, तुंगनार् एवं मध्यमहेश्वर हैं। तुंगनार् का महत्व अशधक है। रुद्रप्रयाग ब्जले के चोपता से 4 दकलोमीटर दरू।(5) कमलेश्वर महादेवः गढवाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर में। (6) दिेश्वर महादेव मंददरः हररद्वार से 4 दकलोमीटर दरू कनखनील में।(7) नीलकंठ महादेव मंददरः ऋत्रषकेि से 32 दकलोमीटर दरू।

(8) हिमाचल प्रदेिाः िैजनार् ज्योशतशलिंग के अशतररि शनबन मंददर, पवशत, सरोवर आदद की मान्यता भी हैः (1) मब्ण-महेि-कैलािः चबिा ब्जले के भरमौर के अन्तगशत धौलाधार, पांगी एवं जास्कर पवशत श्रृखंनीलाओं के िीच कैलाि पवशत एवं मब्ण-महेि सरोवर की मान्यता इस िेि के श्रर्द्ालुओं के शलए शतदित के कैलाि एवं मानसरोवर के समान है। (2) शिव मंददरः कांगडा ब्जले के काठगढ में। (3) दकन्नौर कैलाि या दकन्नर कैलािः दकन्नौर ब्जले में ब्स्र्त पवशत ब्जसे िैव एवं िौर्द् पत्रवि मानते हैं। (4) त्रिजली महादेवः कुल्लू से लगभग 8 दकलोमीटर दरू खनीराल घाटी में। (5) त्रिलोकीनार्ः कुल्लू ब्जले में कुल्लू से मनाली होते हुए रोहतांग से लगभग 8 दकलोमीटर दरू। शनकट ही चन्द्रा और भागा नददयों का संगम तर्ा व्यास नदी का उद्गम। (6) त्रिलोकीनार्, (7) भूतनार् एवं (8) अर्द्श-नारीश्वरः ये तीनों मंददर मंडी ब्जले में। (9) जटोलीः सोलन ब्जले में।

(9) उत्तर प्रदेिाः

वाराणसी के ज्योशतशलिंग त्रवश्वनार् के अशतररि शनबन मंददरों का उल्लेखनी दकया जा सकता है – (1) नया कािी त्रवश्वनार्ः वाराणसी में िनारस दहन्द ूत्रवश्वत्रवद्यालय में। (2) जंगलीनार्ः िहराइच में। (3) लोधेश्वर महादेवः िारािंकी के रामनगर में। (4) गोकणशनार्ः लखनीीमपुर-खनीीरी ब्जले के

गोला-गोकणशनार् में। यह तहसील-स्तर का िहर है जो सरैंया नदी के तट पर ब्स्र्त है। (5) िािा भांडेश्वरनार्ः चदंौली ब्जले के माटीगाँव में।(6) सकहा िंकरः हरदोई में।

(10) राजस्थानाः

(1)एकशलंगजीः उदयपुर से 22 दकलोमीटर दरू। (2) शिव मंददरः िांसवाडा की गढी तहसील के परतापुर में। (3) सोमनार्ः पाली ब्जले के पाली िहर में।(4) शनबिो का नार्ः पाली ब्जले में फालना के पास। (5) परिुराम महादेवः पाली ब्जले में सदरीनगर से 14 दकलोमीटर दरू। (6) हषशनार्ः सीकर से लगभग 10 दकलोमीटर दरू हषशशगरर पहाडी की तलहटी के गाँव में।

(11) ग जरािाः

सोमनार् एवं नागेश्वर के अशतररि शनबन मंददर उल्लेखनीनीय हैः (1) त्रपंपलेश्वर महादेवः मेहसाणा ब्जले में सालदी के पास। (2) उत्कंठेश्वर महादेवः खेनीडा ब्जले में। (3) महादेवः भारुच ब्जले में। (4) कोटेश्वरः कछि ब्जले के लखनीपत के पास।

(12) मिाराष्ट्राः

महाराष्ट्र एक माि ऐसा राज्य है जहाँ चार ज्योशतशलिंगों की मान्यता है। (1) त्र्यबिकेश्वर (2) घुश्मेश्वर (3) भीमिंकर (4) औढंा नागनार्। इनके अलावा औरंगािाद से 50 दकलोमीटर दरू वेरुल में त्रवश्वप्रशसर्द् एलोरा की गुफा संख्या 16 त्रविेष रूप से उल्लेखनीनीय है। कैलाि मंददर का पूरा पररसर दिशनीय है ब्जसमें योगीश्वर, नटराज, त्रिमूशतश एवं नन्दी की आकृशतयाँ शचिाकषशक हैं। मुबिई हािशर से लगभग 10 दकलोमीटर दरू त्रवश्वप्रशसर्द् एशलफें टा (घारापुरीची) के पब्िमी भाग की मुख्य गुफा में शिव का वैभव दिशनीय है।

(13) गोवााः

(1) शिव मंददरः पणजी से 60 दकलोमीटर दरू तािडीसुलश गाँव में।

(14) ओहडिााः

तशमलनाडु के वब्णशत रामेश्वरम ्एवं क्रमांक 1 से लेकर क्रमांक 11 तक के मंददरों के अलावा ओदडिा के भुिनेश्वर का शलंगराज मंददर भी त्रवश्व प्रशसर्द् है। शलंगराज मंददर के अलावा भुिनेश्वर

के ही आस-पास सैंकडों शिव मंददर मौजूद हैं। राजारानी मंददर का स्र्ापत्य भी िेजोड है। मुिेश्वर,घंटेश्वर, परसुरामेश्वर,कत्रपलेश्वर, गंगेश्वर तर्ा गुपे्तश्वर मंददर भी चशचशत हैं। भारत में भुिनेश्वर िहर एवं उसके चतुददशक अन्य दकसी िहर की अपेिा शिव मंददरों की संख्या सवाशशधक है। भुिनेश्वर के अलावा कटक से लगभग 37 दकलोमीटर दरू महानदी में ब्स्र्त द्वीप में धिलेश्वर(धनल अर्ाशत शे्वत) भी दिशनीय है। ओदडिा के अन्य स्र्ानों के प्रशसर्द् शिव मंददर शनबन हैः

(1)भद्रक ब्जले के भद्रक से 37 दकलोमीटर दरू अखनीडंलमशन मंददर (2) ढेंकानल ब्जले में कत्रपलाि पवशत की चोटी पर ब्स्र्त चदं्रिेखनीर मंददर। ढेंकानल से लगभग 20 दकलोमीटर दरू नागनारे्श्वर मंददर। ढेंकानल से 32 दकलोमीटर दरू ब्राह्मनी नदी के तट पर करमुला में आठ शिव मंददर हैं, जो अष्टिंभू के नाम से प्रशसर्द् हैं। इनमें कनकेश्वर अपेिाकृत अशधक प्रशसर्द् है। (3) संिलपुर ब्जले के संिलपुर से 23 दकलोमीटर दरू महानदी के तट पर हूमा मंददर ।

(15) अिमाः

(1)उमानन्द मंददरःगोवाहाटी में ब्रह्मपुि नदी के मध्य ब्स्र्त पीकॉक आइलैंड में। (2) शिव डोलः शिवसागर में। (3) गोपेश्वर पहाडः कामरूप ब्जले के देउदआुर में। मान्यता है दक यहाँ शिव पधारते रे्।

(16) शिक्ककमाः

(1) दकराटेश्वर महादेवः पब्िम शसब्क्कम में रंगीत नदी के तट पर तेगशिप में।

(17) पक्िम बंगालाः

हुिली ब्जले के चन्दननगर प्रखनीडं के तारकेश्वर नगर का तारकनार् मंददर इस राज्य में िैव मत का सवाशशधक महत्वपूणश केन्द्र है।

(18) झारखडंाः

(1)िासुकीनार्ः देवघर-दमुका राजमागश पर दमुका से लगभग 25 दकलोमीटर दरू िासुकीनार् िहर में। यहाँ श्रावण (सावन) के महीने में मेला लगता है। यहाँ दकुानों पर जीवानन्द िमाश के द्वारा

शलखनीी दकताि “श्री िािा िासुकीनार् माहात्बय” सुलभ है। मान्यता के अनुसार दक यहाँ के दिशन दकए त्रिना देवघर के िािा िैद्यनार् की यािा पूणश नहीं मानी जाती। (2) हररहरधाम (िािा धाम) : शगररडीह के प्रखनीडं िगोदर में। यहाँ के पंदडत इस मंददर के शलंग को संसार का सिसे िडा शिवशलंग होने का दावा करते हैं। (3) पहाडी मंददरः राँची में राँची-दहल की चोटी पर।

(19) जम्म-ूकश्मीराः

अमरनार् की गुफा के िफाशनी िािा (स्वयंभू दहमानी शिवशलंग)। आषाढ पूब्णशमा से आरबभ होकर रिािंधन तक सबपन्न होनेवाली अमरनार् यािा में लाखनीों श्रर्द्ालु भाग लेते हैं।

भारिेिर देिों मेाः

(1) शिब्बि के्षत्राः

(1) मानसरोवर एवं (2) कैलाि पवशत

(2) नेपालाः

(1) पिुपशतनार् मंददरः काठमांडु में िागमती नदी के तट पर।(2) डोलेश्वर महादेवः भिपुर में।(3) कैलािनार् महादेवः काठमांडु के पास पवशत पर। नेपाल में मान्यता है दक यह संसार की सिसे ऊँची प्रशतमा है।

(3) पाहकस्िानाः

(1) कटासराज मंददरः पंजाि प्रांत के चकवाल ब्जले में।

(4) बंगलादेिाः

(1) कालभैरव मंददरः िंगलादेि में।

(5) श्रीलंकााः

(1) कोनेश्वरम ्एवं (2) कीर्ीस्वरम ्मंददर

(6) दक्क्षण-अफ्रीकााः

जोहांसिगश में संसार की सिसे ऊँची शिव-ित्रि की प्रशतमा की स्र्ापना हुई है। समाचार-पिों की ररपोटश के अनुसार इसकी ऊँचाई 20 मीटर है तर्ा इसे िनाने में 90 टन स्टील लगा है।

िैव मि / िैव िंप्रदाय का आरम्भ एवं ववकािाः

रुद्राः

िैवमत का मूलरूप ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में शमलता है। रुद्र के त्रविेषक के रूप में शिव िदद का प्रयोग हुआ है। रुद्र की व्युत्पत्रि रुद् धातु से हुई है ब्जसका अर्श है – भयानक, भयंकर, डरावना। (वामन शिवराम आप्टेः संस्कृत-दहन्दी कोि, पषृ्ठ 859)

प्रोफेसर त्रपिेल ने यह प्रशतपाददत दकया है दक रुद् धातु का प्रयोग पहले लाल अर्वा देदीप्यमान के अर्श में भी होता र्ा। ( देखनीें – टी. एच. राल्फ शग्रफ्थःर्ः द हाइमेंस फ द ऋग्वेद, पषृ्ठ 75, दटप्पण 1., मोतीलाल िनारसीदास, ददल्ली, (1973))।

तुलनात्मक भाषात्रवज्ञान के त्रवद्वान ग्रैसमेन ने इसका अर्श चमकना माना है। (देखनीें – महादेव चक्रवततः द कॅनसेप्ट फ रुद्र- शिवा थ्र ूद एब्जज, पषृ्ठ 4, मोतीलाल िनारसीदास (1994))।

डॉ. रामकणश िमाश ने शिवसहस्रनामा में इसका अर्श संस्कृत-दहन्दी कोि की भाँशत ही भयानक, भयंकर, डरावना स्वीकार दकया है। ( शिवासहस्रनामाष्टकम,् पषृ्ठ 301, नाग पब्दलिसश, ददल्ली (1996))।

ऋग्वेद में रुद्र का उल्लेखनी अनेक स्र्लों पर हुआ है। ( 1.43 । 1.114 । 2.33 । 7.46 )।

ऋग्वेद में रुद्र का वणशन कहीं दहंस्र एवं खनीुखंनीार रूप में, कहीं वषाश के पूवश भयंकर झंझावात के रूप में तर्ा कहीं धनुष से िाणों की िौझार करते हुए योर्द्ा के रूप में हुआ है। ऋग्वेद में रुद्र से दया याचना की भावाशभव्यत्रि भी है तर्ा रुद्र को पराक्रमी रूप में भी ददखनीाया गया है।( 1.114 )

रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने रुद्र का सबिंध व्याशधकताश के सार्-सार् व्याशधयों से िाण ददलाने वाले देव के सार् भी माना है। ( वैिनत्रवज़्म, िैत्रवज़्म एण्ड माइनर ररशलजीयंस शसस्टबस, पषृ्ठ 146, एशियन एजुकेिनल सत्रवशशसस, ददल्ली (1913))

िवै धमा प्राग्वहैदकाः

रामधारी शसंह ददनकर ने त्रवद्वानों की इस मान्यता को रेखनीांदकत दकया है दक िैव धमश प्राग्वैददक अर्वा द्रत्रवड संस्कृशत की देन है। मान्यता के पि में उन्होंने जो तकश प्रस्तुत दकए हैं, वे संिेप में शनबन हैं :

1. ऋग्वेद में रुद्र के ब्जस स्वरूप का वणशन हुआ है उसका आयों के प्रकृशत पूजक स्वभाव से मेल नहीं िैठता।

2. मोहंनजोदडो और हडप्पा की खनीदुाई में प्राप्त योगी की मूशतशयों से यह अनुमान होता है दक आयों के आगमन के पूवश ही इस देि में शिव की पूजा प्रचशलत र्ी।

3. शिव पुराण में वब्णशत कर्ा में ऋत्रषगण शिव पर क्रोध करते हैं, िाप देते हैं ब्जससे शिवशलंग के नौ टुकडे हो जाते हैं।

4. पुराणों में वब्णशत है दक शिव का प्रसाद खनीाना शनत्रषर्द् है। 5. दि प्रजापशत यज्ञ सबपन्न करते हैं। उसमें शिव को स्र्ान नहीं ददया जाता। 6. आचायश ब्िशतमोहन सेन ने अपनी पुस्तक (संस्कृशत संगम) में स्कंद-पुराण, शलंग-पुराण, कूमश-पुराण, वामन-पुराण, शिव-पुराण और पद्म-पुराण के आधार पर यह प्रशतपाददत दकया है दक शिव के आचारों को देखनीकर ऋत्रष-पब्त्नयाँ काम-मोदहत हो जाती र्ीं। ऋत्रष लोग शिवजी पर कुत्रपत होकर मुत्रष्ट-प्रहार करते रे्, उन्हें अपिदद कहते रे् और िाप देते रे्। ( संस्कृशत के चार अध्याय, पषृ्ठ 70 – 71, उदयाचल प्रकािन, पटना, ततृीय संस्करण (1962))। पुराणों में ऋत्रष-पब्त्नयों के आचरण को उनकी कामुकता के रूप में प्रदशिशत दकया गया है।

आचायश ब्िशतमोहन सेन ने यह मत व्यि दकया है दक सबभवतः आगत आयों ने भारत के द्रत्रवडों की कन्याओं से वैवादहक सबिंध स्र्ात्रपत दकया होगा और चूदँक ये ऋत्रष-पब्त्नयाँ अशधकतर आयतेर कुलोत्पन्ना र्ीं, इसीशलए वे अपने त्रपत-ृकुल-देवता की पूजा करने के शलए इतनी व्याकुल रहती र्ीं। तादकश क दृत्रष्ट से यह व्याख्या अशधक संगत है। ददनकर ने भी आचायश सेन की व्याख्या का समर्शन दकया है। इस मान्यता के पि में यह पुष्ट प्रमाण भी ददया जा सकता है दक भगवान शिव आयश देवताओं के उपास्य होने के सार्-सार् उनके भी उपास्य हैं ब्जनको आयश असुर कहते रे्। रावण की शिव भत्रि तो प्रशसर्द् है ही, अनेक अन्य असुरों के द्वारा इनकी उपासना की गार्ाएँ पुराणों में शनिर्द् हैं।

रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने यह मत प्रशतपाददत दकया है दक रुद्र-शिव का सबिंध आब्स्िक और नीग्रों जाशतयों के उपास्य देवताओं से रहा है। अपनी मान्यता के पि में उन्होंने शिव द्वारा धतूरा-भाँग का सेवन करना, श्मिान में वास करना, शिव के सार् िव, सपश, खनीप्पर एवं हार्ी के चमडे का सबिंध तर्ा जंगली विृों एवं वनस्पशतयों के त्रविेषज्ञ होना आदद प्रमाण

प्रस्तुत दकए हैं।( देखनीें - वैिनत्रवज़्म, िैत्रवज़्म एण्ड माइनर ररशलजीयसं शसस्टबस, एशियन एजुकेिनल सत्रवशशसस, ददल्ली (1913))।

ददनकर ने भगवान शिव के उदय एवं त्रवकास तर्ा उसमें भारत की अनेक जाशतयों ( आब्स्िक या आग्नेय, द्रात्रवड, आयश) तर्ा उनके देवी-देवताओं के योगदान का समाहार सारगशभशत िददों में दकया हैः

“ - - - अनुमान है दक द्रत्रवडों के यहाँ जो ताम्रवणश के प्रतापी देवता रे्, वही आयों के मरुत-स्वामी रुद्र से शमल गए तर्ा औत्रष्ट्रक जाशतवालों के पास जो अनेक जंगली देवता रे्, उनके भी गुण, धीरे-धीरे, आकर रुद्र-शिव की भावना के सार् जुडने लगे। इस तरह, िहुत काल के िीत जाने पर, शिव का रूप अत्यंत त्रवकशसत हो गया और उसके एक िोर पर तो रुद्र-सबिंधी दािशशनक भावना प्रशतत्रष्ठत हुई, ब्जसे आयश और द्रत्रवड, दोनों जाशतयों के शिष्ट वगश ने अपनाया और दसूरे िोर पर शिव के पाररवाररक रूप, उनके अवढर और दयालु होने की िात तर्ा उनके योगेश्वर, भूतेि और फक्कड एवं अघोर होने की कर्ाएँ आ जुडीं, ब्जससे जन-साधारण को संतोष शमलने लगा।“ ( ददनकरः भारतीय संस्कृशत के चार अध्याय, पषृ्ठ 76)

ऋग्वेद के बादाः

यजुवदे में रुद्र को महादेव की प्रशतष्ठा शमलती ददखनीाई देती है। यजुवदे का श्री रुद्रम चमक मंि इसका प्रमाण है। (अस्य श्री रुद्राद्याय प्रश्न महामन्िस्य अघोर ऋत्रषः - - सङ्कषशणमूशतशस्वरूपो – परमपुरुषः स एष रुद्रो देवता।।) यजुवदे के ितरुदद्रय अध्याय, तैत्रिरीय आरण्यक और शे्वताश्वतर उपशनषद में शिव को ईश्वर माना गया है। उनके पिुपशत रूप का संकेत सिसे पहले अर्वशशिरस उपशनषद में पाया जाता है। रामायण-महाभारत के समय तक िैवमत िवै अर्वा माहेश्वर नाम से प्रशसर्द् हो चकुा र्ा। महाभारत के अनुिासन पवश में वब्णशत “शिव सहस्रनामा” (1008 नाम) के कम से कम आठ रूपान्तर शमलते हैं। इनको आधार िनाकर राम कणश िमाश ने अपना ग्रंर् शलखनीा है। इसमें आठ रूपान्तरों के तुलनात्मक अध्ययन के सार्-सार् भूशमका भी है। अि शिव को महादेव एवं परमेश्वर िनने का गौरव प्राप्त हो गया। (देखनीें- राम कणश िमाश (1996))। आदद िंकराचायश के त्रवष्णु सहस्रनामा के 27 वें एव ं600 वें नामों में शिव के अनेक अर्ों की अशभव्यत्रि हुई है। उदाहरणार्श, 1. त्रविुर्द् 2. प्रकृशत के तीनों गुणों ( सत्व, रजस, तमस) से अप्रभात्रवत 3. ब्जसके नाम के उछचारण करने से व्यत्रि शनमशल एव ंिुर्द् हो जाता है। ( त्रवष्णु सहस्रनामा, पषृ्ठ 47 एवं पषृ्ठ 122, रामकृष्ण शमिन)।

िवै दिान एवं वेदांि दिानाः

वेदांत दिशन शनगम से पे्ररणा लेता है। िैव दिशन के आधार आगम ग्रंर् हैं। शनगम से वेदों का िोध होता है। वेदार्श िोधक या वेद सबमत ग्रंर् शनगम कहलाते हैं। परबपरा से आगत ज्ञान के संग्रह आगम ग्रंर् कहलाते हैं। आगम ग्रंर् िैव, जैन, िौर्द् सभी धमों के अलग-अलग हैं। वैष्णव आदद संप्रदायों के भी आगम ग्रंर् हैं। िैव दिशन के संदभश में िैवागम ग्रंर् शिव एवं ित्रि के मुखनी से शनकले हुए माने जाते हैं। वैददक धमश वणश व्यवस्र्ा का पोषक है। वह वेद आदद ग्रंर्ों के पढने का अशधकार िूद्रों को प्रदान नहीं करता। आगमों की पररणशत भत्रि में हुई। भत्रि मागश का त्रवश्वास है दक हम सि हरर की ज्योशत के स्फुशलंग हैं। “एक जोशत तैं सि ऊपजा, कौन ब्राह्मन कौन सूदा”।

वेदांत दिशन साधना की पररणशत अदै्वत भाव में मानता है। ब्रह्म पूणश अदै्वत, एकरूप एवं कूटस्र् है। ( ब्रह्म सूि 1/3/19; िांदोग्य उपशनषद् 6/2/1-2; त्रववेक-चडूामब्ण, 228; ईिावास्योपशनषद् 4 पर िांकर भाष्य)। िैव दिशन अदै्वतवाद को स्वीकार नहीं करते। उनकी दृत्रष्ट में अदै्वत परम तत्त्व नहीं है। सदानंद अवस्र्ा अदै्वत भाव से भी ऊध्वशवतत है। अदै्वत के ऊपर नार् हैं जो साकार-शनराकार दोनों के परे हैं। उस नार् से शनराकार ज्योशतस्वरूप नार् उत्पन्न हैं। शनराकार ज्योशत ही प्रतीक रूप में ज्योशतशलिंग है। स्वयं ज्योशतस्वरूप सब्छचदानंद मूशतश ही परतत्त्व है। “स्व ज्योशतः सत्यमेकं जयशत तव पदं सब्छचदानन्द मूते”।

वेदांत दिशन एवं िैव दिशन में शनराकार ब्रह्म की ित्रि के स्वरूप-प्रशतपादन का अतंर स्पष्ट है। वेदांत में ब्रह्म की ित्रि “माया“ जड है। िैव दिशन में ित्रि चतैन्य स्वरूप है। यह सत है, शनत्य है और अत्रवनश्वर है। शिव अपनी शससिृा-रूपा ित्रि के कारण इस जगत ्के रूप में हैं।

वेदांत दिशन में माया का कायश जीवों को िंधन में डालना है। िैव दिशन में ब्रह्म की स्व समवेता ित्रि का कायश जीवों को िंधन में डालना नहीं है। इसके त्रवपरीत इसके प्रभाव से िंधनग्रस्त भी मुि हो जाता है।

वेदांत दिशन में माया ब्जस जगत का सजृन करती है वह त्रववतश होने के कारण असत्य एवं शमथ्या है। उसकी ब्स्र्शत रज्जु में सपश अर्वा िुत्रि में रजत की भाँशत ब्रह्म में सत्य भासता हुआ सा है। वह ताब्त्त्वक दृत्रष्ट से स्वप्न एवं माया-रशचत-गंधवश-नगर के समान पूणशतया शमथ्या एवं असत्य है। ( ब्रह्म सिू 2/1/14; गीता 15/3 पर िांकर भाष्य, त्रववेक-चडूामब्ण 140, 141, 405; वेदांत-सार, पषृ्ठ 8)। िैव दिशन में शिव की शससिृा ही ित्रि है और ित्रि का पररणमन ही जगत है। ित्रि की सहायता से ही शिव सतृ्रष्ट आदद व्यापार शनष्पाददत करते हैं। िैव दिशन

में जगत उत्पन्न एवं नष्ट नहीं होता। इसमें परत्रपंड प्रकट होता है, लयीभूत होता है। जो कुि भी ब्रह्माण्ड में है, वह सभी त्रपण्ड में भी है। परम तत्त्व की पराित्रि ब्जस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसी प्रकार त्रपण्ड में भी व्याप्त है। ब्रह्माण्ड में जो कुि है, वही त्रपण्ड में भी है।

िैव मि के िम्प्रदाय एवं प्रम ख उपिम्प्रदायाः महाभारत एवं वामन पुराण में माहेश्वरों के चार सबप्रदाय पररगब्णत हैं :

1. िैव 2. पािुपत 3.कालदमन और 4. कापाशलक।

इनमें से अब्न्तम दो नाम शिव के रुद्र तर्ा भंयकर रूपों को अशभव्यंब्जत करते हैं जिदक पहले दो नाम शिव के सौबय रूप को व्यि करते हैं। रौद्र रूप में वे महाकाल के प्रशतरूप, महात्रवध्वंसक, सवशसंहारक एवं प्रलयंकर हैं। सौबय रूप में वे परम मंगलमय, सवशकल्याणकारी और आिुतोि शिव हैं। आिुतोष का अर्श है – र्ोडे में संतुष्ट होनेवाला। शिव का अर्श है – मंगलमय एवं कल्याणकारी।

पहले िैवमत के मुख्यतः दो सबप्रदाय रे्-

1. पािुपत और 2. आगशमक।

पािुपत और आगशमक िवै मतों में कालांतर में अनेक उपसबप्रदाय त्रवकशसत हो गए। यहाँ प्रमुखनी उपसबप्रदायों के िारे में संकेत दकया जा रहा है :

(क) पािुपत िैव मतः 1. पािुपत 2. कापाशलक 3. नार् सबप्रदाय (खनी) आगशमक िैव मतः 1. िैव शसर्द्ांत एव ंतशमल िैव 2. काश्मीरीय िैव 3. वीर िैव या शलंगायत धमश (क) पाि पि िैव मिाः

1. पाि पिाः यह सबप्रदाय शिव को सवोछच ित्रि मानकर उपासना करता है।इस सबप्रदाय ने पािुपत नाम शिव की एक उपाशध पिुपशत से शलया है ब्जसका व्युत्पत्यर्श है - 'पिुओं के देवता'। अर्श-त्रवस्तार के िाद इसका अर्श 'प्राब्णयों के देवता' हो गया। शे्वताश्वतर उपशनषद में रुद्र का तादात्बय िंकर के सार् पाया जाता है। महाभारत में पािुपत सबप्रदाय का उल्लेखनी है। यह भी उल्लेखनी है

दक लकुलीि शिवोपासक ने इस सबप्रदाय को संगदठत दकया। कुि त्रवद्वान लकुलीि पािुपत को पािुपत सबप्रदाय से अलग सबप्रदाय मानते हैं। तत्त्वतः दोनों में इतना भेद नहीं है दक इसे अलग सबप्रदाय माना जाए। पािुपत तत्त्वज्ञान िाब्न्तपवश के 249वें अध्याय में वब्णशत है। 284 वें अध्याय में त्रवष्णु स्तुशत के िाद दि द्वारा िंकर की स्तुशत की गई है। इस मत में पिुपशत सि देवों में मुख्य हैं। वे ही सारी सतृ्रष्ट के उत्पत्रिकताश हैं। इस मत में पिुपशत या परमेश्वर स्वतंि तत्त्व है। वही जगत का कारण है। पिु का अर्श समस्त सतृ्रष्ट है, अर्ाशत ्ब्रह्मा से स्र्ावर तक सि पदार्श।

वासुदेव सबप्रदाय की तरह कुि इशतहासकार पािुपत के उद्भव को दसूरी िताददी के ई.पू. का मानते हैं, जिदक अन्य इसके उद्भव की शतशर् दसूरी िताददी की ई. को मानते हैं।

पािुपत सबप्रदाय का मूल आधारग्रन्र् माहेश्वर रशचत 'पािुपतसुि' है। इसके ऊपर गुप्त काल में राशिकर कौब्ण्डय ने 'पंचार्तभाष्य' शलखनीा। माधवाचायश ने “सवश दिशन संग्रह” में इसके दािशशनक तत्त्वों का उल्लेखनी दकया है। वैिेत्रषक सूि का कताश कणाद्, वात्स्यायन के न्यायभाष्य की उद्योतनी टीका का लेखनीक भारद्वाज, वराहशमदहर और उसका टीकाकार उत्पल आदद ने इस सबप्रदाय के दािशशनक पि की त्रववेचना की है।

इस मत के पाँच अगं हैं – 1. कायश 2. कारण 3. योग 4. त्रवशध 5. दःुखनीान्त।् जीव (जीवात्मा) और जड (जगत) को कायश कहा जाता है। परमात्मा (शिव) इनका कारण है, ब्जसको पशत कहा जाता है। जीव पिु और जड पाि कहलाता है। मानशसक दक्रयाओं के द्वारा पिु और पशत के संयोग को योग कहते हैं। ब्जस मागश से पशत की प्राशप्त होती है उसे त्रवशध की संज्ञा दी गयी है। संसार में दखुनीों से आत्यब्न्तक शनवतृ्रि दःुखनीान्त अर्वा मोि है।

पािुपत ग्रन्र्ों में शलंग को अशत अचशनीय ितलाया गया है। शलंग पूजा का प्रचलन कि से है, यह त्रववादास्पद है। पुरातत्त्ववेिाओं के त्रवचार से यह ईसा के पूवश से चला आ रहा है। ऋग्वेद में शिश्नदेव िदद का उल्लेखनी शमलता है। पािुपत मत के संघटन के समय तक शलंगपूजा को मान्यता शमल चकुी र्ी। जीव की संज्ञा 'पिु' है। यह इब्न्द्रयभोगों में शलप्त रहता है। यह पिु है। भगवान शिव पिुपशत हैं। उन्होंने त्रिना दकसी िाहरी कारण, साधन अर्वा सहायता के इस संसार का शनमाशण दकया है। वे जगत के स्वतंि कताश हैं। हमारे कायों के भी मूल कताश शिव ही हैं। वे समस्त कायों के कारण हैं। संसार के मल-त्रवषय आदद पाि हैं ब्जनमें जीव िंधा रहता है। इस पाि अर्वा िन्धन से मुत्रि शिव की कृपा से ही प्राप्त होती है। मुत्रि दो प्रकार की है, सि दखुनीों की आत्यब्न्तक शनवतृ्रि और परमैश्वयश की प्राशप्त। यह मत िांकर अदै्वतवाद के स्र्ान पर द्वयात्मक सबिंध का प्रशतपादन करता है।

पािुपत सबप्रदाय की साधना पर्द्शतयों में ददन में तीन िार िरीर पर राखनी मलना, ध्यान लगाना और ित्रििाली िदद ‘ओम’ का जाप करना िाशमल हैं। इस सबप्रदाय के साधक लाल रंग के वस्त्र धारण करते रे्। (त्रविेष अध्ययन के शलए देखेनीः डेत्रवड लोरेंजेन. िैत्रवज़्मः पािुपताज (ऍन्साइक्लोपीदडया फ ररलीजन ( संपादकः शमछयाश एशलयादे), मेब्क्मलन पब्दलशिंग, न्यूयोकश (1987))। 2.कापाशलकाः कापाशलकों के उपास्य देव िक्त्याशलंशगत शिव अर्वा उमामहेश्वर हैं। प्रिोधचन्द्रोदय, मालतीमाधव तर्ा आनन्दशगरर के िंकरत्रवजय आदद ग्रंर्ों में इस मत का पररचय शमलता है। इनके साबप्रदाशयक शचह्न इनकी िः मुदद्रकाएँ र्ीं। ये इस प्रकार हैं-

1. कंठहार 2. आभूषण 3. कणाशभूषण 4. चडूामब्ण 5. भस्म और 6. यज्ञोपवीत।

इनके आचार शिव के घोर रूप के अनुरूप िडे वीभत्स रे्। कपालपाि में भोजन करना, िव के भस्म को िरीर पर लगाना, भस्मभिण, यत्रष्टधारण, मददरापाि रखनीना, मददरापाि की पूजा करना आदद। कपाल पाि में भोजन करने के कारण इनके आचरण की दक्रयाओं के शलए “कापाशलका दक्रयाएँ “ िदद रूढ हो गया। “गोरि शसर्द्ांत संग्रह“ में एक उपाख्यान आता है जो कापाशलक िदद की व्युत्पत्रि के सार्-सार् उस युग का िोध कराता है जि वैष्णव मतों एवं िैव मतों में परस्पर कलह चरम सीमा पर र्ा। संिेप में इस उपाख्यान का सार यह है दक जि भगवान त्रवष्णु ने चौिीस अवतार ग्रहण करके उन अवतारों के माध्यम से अत्याचार एवं दषु्कृत्य करने आरबभ कर ददए ति उनसे कुत्रपत होकर श्रीनार् ने 24 शसर्द्ों को भेजा ब्जन्होंने उन चौिीस अवतारों के कपाल काटकर उन्हें अपने गले में धारण कर शलया। इसी कारण ये कापाशलक कहलाते हैं। कापाशलकों के समान ही कालामुखनीी संप्रदाय का भी नाम शमलता है। इनके परस्पर सबिंधों के िारे में डेत्रवड लोरेंजेन ने अध्ययन दकया है। ( देखनीें : द कापाशलकाज एण्ड कालामुखनीाजः द टू लॉस्ट िैवाइट सेक्टस (मोतीलाल िनारसीदास, ददल्ली (1972))। डॉ. श्यामाकांत दद्ववेदी ने कापाशलक मत एवं नार् मत के सबिंधों का शनरूपण दकया है। (देखनीें : कौलज्ञान शनणशय (प्रर्म खनीडं) : 62 – 63, चौखनीबिा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी (2009)) ।

3.नाथ िम्प्रदायाः

नार् सबप्रदाय के आदद आचायश कौन हैं ? इसका उिर देना कदठन है। हमारे आचायों ने सभी िास्त्रों की प्रर्म प्रवतृ्रि परमेश्वर से मानी है। हठयोग प्रदीप की टीका में ब्रह्मानंद का कर्न है दक सि नार्ों में प्रर्म आददनार् हैं जो स्वयं शिव ही हैं। साबप्रदाशयक ग्रंर्ों में नार् संप्रदाय के अनेक नामों का उल्लेखनी हुआ है। नार् सबप्रदाय या नार् मागश के अलावा इसे योग सबप्रदाय, योग मागश, शसर्द् मत, शसर्द् मागश आदद नामों से भी जाना जाता है। डॉ. हजारी प्रसाद दद्ववेदी ने इन नामों की सार्शकता का प्रशतपादन करते हुए शलखनीा है दक नार् सबप्रदाय योशगयों का ही सबप्रदाय है तर्ा ये अपने मागश को शसर्द् मत या शसर्द् मागश इसशलए कहते हैं दक इनके मत से नार् ही शसर्द् हैं। “ना” का अर्श है अनादद रूप और “र्” का अर्श है (भुवनिय) स्र्ात्रपत होना। नार् मत का स्पष्टार्श वह अनादद धमश है जो भुवनिय की ब्स्र्शत का कारण है। ( नार्-सबप्रदाय, पषृ्ठ 3, दहन्दसु्तानी एकेडेमी, उिर प्रदेि, इलाहािाद(1950))।

इस िारे में लेखनीक का मत अलग है। इसके शनबन कारण हैं :

1. यह शनत्रवशवाद है दक नार् सबप्रदाय पर योग का प्रभाव है। मगर इससे यह कहना दक “नार् सबप्रदाय योशगयों का ही सबप्रदाय है” - कहना उपयुि नहीं है। योग िदद का प्रयोग पातंजल योग के साधकों के शलए रूढ हो गया है। योग की साधना-पर्द्शत का अनुसरण तो िैव, िाि, वैष्णव, कापाशलक, स्मातश, िौर्द्, जैन, सूफी आदद सभी धमों एवं सबप्रदायों के साधक करते हैं। ब्जस प्रकार इनको योग मत तर्ा इनके साधकों को योगी के नाम से नहीं पुकारा जाता, उसी प्रकार नार् सबप्रदाय को भी योग मत या योग मागश के नाम से पुकारना संगत नहीं है। पतंजशल का कैवल्य तर्ा नार्ों की मुत्रि का स्वरूप समरूप नहीं है। दोनों में त्रपण्ड साधना के स्वरूप एवं लक्ष्य में भी अन्तर हैं।

2. डॉ. हजारी प्रसाद दद्ववेदी ने नार् सबप्रदाय को शसर्द् मत या शसर्द् मागश कहने का औशचत्य इस तकश के आधार पर माना है दक इनके मत से नार् भी शसर्द् हैं। राहुल सांकृत्यायन नार् पंर् को वज्रयान एवं सहजयान का ही त्रवकशसत एवं पररष्कृत रूप मानते हैं। उनका स्पष्ट कर्न है दक नार् सबप्रदाय 84 वज्रयानी िौर्द् शसर्द्ों से ही आत्रवभूशत हुआ है। इसमें कोई त्रववाद नहीं है दक नार्ों पर वज्रयानी शसर्द्ों का स्पष्ट प्रभाव है। मगर इस प्रभाव के कारण उन्हें शसर्द् मत या

शसर्द् मागश के नाम से नहीं पुकारा जा सकता। शसर्द् िदद वज्रयानी शसर्द्ों के शलए रूढ हो गया है। धमशवीर भारती ने “शसर्द् सादहत्य” शलखनीकर इसे और पुख़्ता कर ददया है। नार् सबप्रदाय िैवों का पंर् है। इनके उपास्य नार् अर्ाशत ्शिव ही हैं। नार् सबप्रदाय के

दिशन एवं शसर्द्ांत का मूल आधार िैवों का तत्त्व-दिशन एवं िैवों की ही भाँशत शिव-ित्रि शसर्द्ांत, शिव-ित्रि में अभेद, सगुण-शनगुशण से परे लोक की कल्पना, अदै्वत से भी परे अवस्र्ा में त्रवश्वास, त्रपण्ड एवं ब्रह्माण्ड की एकता का प्रशतपादन आदद तत्त्व हैं। नार्ों पर िौर्द्ों के िून्यवाद, त्रवज्ञानवाद, वज्रयानी-सहजयानी तांत्रिकों के ताब्त्त्वक शसर्द्ांतों, जैन-दिशन के शनवतृ्रि मागश, अदहंसा-दिशन एवं ब्रह्मचयश तत्त्व, वैष्णवों की आचार शनष्ठा, कापाशलकों के सोम शसर्द्ांत, गीता के शनष्काम-कमश-योग, कत्रपल के योगपरक ज्ञानवाद, माकश ण्डेय के हठयोग, पतंजशल के अष्टांग योग, रसेश्वरवाददयों के रस-शसर्द्ांत तर्ा िंकराचायश के शनगुशण ब्रह्मवाद का प्रभाव पडा है मगर इनका मूल िैव दिशन ही है। नार् संप्रदाय में उपास्य नार् है। नार् का स्वरूप शनरंजन, परमानंद, त्रवश्व गुरु है जो

महाशसर्द्ों का लक्ष्य है। नार् सबप्रदाय के साधक भी शिव-ित्रि के उपासक हैं अर्ाशत ्आत्मोपासक हैं, शिव-ित्रि में अभेद मानते हैं, अदै्वत से भी परे लोक की कल्पना करते हैं जो सगुण-शनगुशण के परे है। इस कारण ये िैवों के अन्तगशत पररगब्णत हैं। डॉ. हजारी प्रसाद दद्ववेदी का कर्न है दक वज्रयानी परबपरा के 84 शसर्द्ों के समान नार्पंर् में भी 84 शसर्द् हैं। ( वही, पषृ्ठ 31)। नार्ों के प्रवतशक आददनार् हैं। नौवीं-सदी से लेकर िारहवीं सदी के िीच इस सबप्रदाय की दो

परबपराओं या धाराओं के नाम शमलते हैं। एक मत्स्येन्द्रनार् से िुरु होती है ब्जसमें गोरिनार् या गोरखनीनार्, शनवतृ्रिनार् एवं ज्ञानेश्वर आदद आते हैं। दसूरी जालंधरनार् से िुरु होती है ब्जसमें कब्णशया, चपशरनार् या चपशटनार् तर्ा गोपीचदं, रेवीनार्, मीननार् आदद आते हैं। इन नार्ों में मत्स्येन्द्रनार् एवं गोरखनीनार् अपेिाकृत अशधक प्रशसर्द् हैं। मत्सस्येंद्रनाथाः मत्स्येंद्रनार् की िाखनीा को यौशगनी कौल मागश के नाम से पुकारा जाता है। इनकी रचनाओं

में कौलज्ञान शनणशय, अकुलवीरतंि, कुलानन्द एवं ज्ञानकाररका अशधक प्रशसर्द् हैं। कौलज्ञानशनणशय िीषशक से स्पष्ट है दक इन्होंने िाि तंि की कौलधारा को अगंीकार दकया र्ा। कुल का अर्श है - कुण्डशलनी। अकुल का अर्श है – परमशिव। कौल वह है जो कुल एवं अकुल में सामरस्य स्र्ात्रपत कर दे । दसूरे िददों में जो कुण्डशलनी को मूलाधार से ऊपर ऊठाकर सहस्त्रारचक्र में ब्स्र्त अकुल

अर्ाशत परमशिव से शमला दे। डॉ. श्यामाकांत दद्ववेदी ने इस सबिंध में भावरहस्य से शनबन पंत्रियाँ प्रस्तुत की हैः कुलं कुण्डशलनी जे्ञया महाित्रिस्वरूत्रपणी। अकुलन्तु शिवः प्रोिः िुर्द्सत्वमयो त्रवभुः।। (कौलज्ञान शनणशयः, प्रस्तावना, (प्रर्म खनीण्ड) चौखनीबिा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी

(2009))। गोरखनाथ या गोरक्षनाथाः गोरखनीनार् अर्वा गोरिनार् ने योग साधना में अनेक नूतन पर्द्शतयों का अत्रवष्कार दकया।

इन्होंने योग को वामाचार एवं स्वछिंद यौनाचार के प्रभाव से अलग दकया। हठयोग के सार्-सार् लययोग एवं राजयोग का वरण दकया। इस कारण िहुत से त्रवद्वान गोरखनीनार् को अलग पंर् का प्रवतशक मानते हैं। मगर इन्हें नार् सबप्रदाय के अन्तगशत ही स्वीकार करना संगत है। कोई परवतत साधक यदद अपनी परबपरा में सुधार करता है या उसमें कुि जोडता है तो उसे नए सबप्रदाय या पंर् का प्रवतशक नहीं मानना चादहए। इनकी 40 रचनाओं का संग्रह “गोरखनीिानी” के नाम से प्रशसर्द् है। ( देखनीें – गोरखनीिानीः संपादक – डॉ. पीताबिर दि िडथ्वाल, दहन्दी सादहत्य सबमेलन, इलाहािाद)। इनकी (1) सिदी (2) पद (3) आत्म िोध (4) मिीन्द्रगोरखनी िोध (5) ज्ञान शतलक (6) ज्ञान चौंतीसा (7) पंच मािा आदद रचनाएँ अशधक प्रशसर्द् हैं। िहुत से त्रवद्वान गोरखनीनार् की साधना-पर्द्शत को िंकराचायश के अदै्वतवाद के आलोक में त्रववेशचत करते हैं। तत्त्वतः गोरखनीनार् काश्मीरीय िैव दिशन एवं िाि दिशन के अशधक नजदीक हैं। नाथ िंप्रदाय की िाधना-पद्धशिाः नार्ों में परस्पर मत वैशभन्नय भी हैं। यहाँ उनकी त्रववेचना करना लक्ष्य नहीं हैं। यहाँ हमारा उदे्दश्य उनके सामाब्जक त्रवश्वास एवं आचरण तर्ा साधना पर्द्शतयों के सामान्य स्वरूप के िारे में त्रवचार करना है। नार् िाह्य आचरणों का शनषेध करते हैं। तीर्श स्र्ानों में जाना, गंगा आदद नददयों में स्नान करना, साकार रूपों की पूजा करना आदद का इनके शलए कोई महत्व नहीं है। वणश व्यवस्र्ा एवं जाशत-पाँशत के आधार पर व्यत्रि के मूल्यांकन का खनीडंन करते हैं। िास्त्रों के ज्ञान को नहीं अत्रपतु अनुभूशत को प्रमाण मानते हैं। नार्-साधना में योग द्वारा त्रपण्ड का शचन्मयीकरण तर्ा शचन्मय त्रपण्ड का परम शिव या परमनार् से सामरस्य स्र्ात्रपत करना लक्ष्य है। यह प्रशतपाददत दकया जा चकुा है दक िैव दिशन ब्रह्माण्ड एवं त्रपण्ड की एकता मानता है। नार्ों ने जोरदार िददों में कहा दक ब्रह्माण्ड में जो कुि है, वही त्रपण्ड में भी है।“ब्रह्माण्डेSप्यब्स्त यब्त्कंशचत ्तत ्त्रपण्डेप्यब्स्त“। समाशध की दिा में

साधक नार् अनुभव करता है दक वह परमनार् रूप ही है। समरसीकरण की ब्स्र्शत में अहं वतृ्रि परम वतृ्रि से वैसे ही एकरस हो जाती है जैसे नमक गलकर पानी से एकरूप हो जाता है। त्रपण्ड का परत्रपण्ड में त्रवलय नहीं होता; एकरस अर्वा एकरूप होता है। त्रपण्ड के शचन्मयीकरण के शलए आत्म िुत्रर्द् अशनवायश है। आत्म िुत्रर्द् का अर्श है - षडत्रवध त्रवकारों से िून्य होना। षडत्रवध त्रवकार हैं – (1) जन्म (2) वतृ्रर्द् (3) पररणाम (4) अपिय (5) जरा (6) मरण। जरा-मरण ति तक है जि तक िरीर काल प्रवाह में है। अपररपक्व देह या काया से चरम लक्ष्य की शसत्रर्द् सबभव नहीं है। जि तक मूल त्रिन्द ुअब्स्र्र और चचंल रहता है, देह या काया अब्स्र्र और जराजीणश है। इसके ब्स्र्रीकरण के शलए त्रिन्द ुका ब्स्र्रीकरण आवश्यक है। मन के ब्स्र्र होने से वायु ब्स्र्र हो जाती है। वायु के ब्स्र्र होने से त्रिन्द ुब्स्र्र हो जाता है। ब्स्र्र त्रपण्ड काल के प्रवाह से अतीत हो जाता है। काल के प्रवाह से अतीत होने पर प्रारदध (पूवश संशचत कमों के फल) के प्रभाव से मुि हो जाता है। नार्ों की साधना हठयोग पर अशधक आधाररत है। िरीर का मूल त्रिन्द ुहै। त्रिन्द ुपाण्डुर और लोदहत दो प्रकार का होता है। पाण्डुर िुक्र/ शिव तर्ा लोदहत महारज/ ित्रि है। दोनों के संयोग/ समरसीकरण/ ऐक्य संपादन से परम पद की उपलब्दध होती है। हठयोग के अलावा नार्ों ने साधना पर्द्शतयों में मंियोग, लययोग तर्ा राजयोग को भी अपनाया है। मंियोग को अजपाजप भी कहते हैं। यह वह योग है ब्जससे श्वास-प्रश्वास के माध्यम से शनरंतर “हम”् तर्ा “सः “ उलटकर सुषुना में त्रिना आयास के “मैं शिव ही हँू” की शनरंतर अनुभूशत होती रहती है। प्रत्येक व्यत्रि शिव रूप ही है। ब्जतनी मािा में वह इसका अनुभव करता है, उतनी मािा में वह शिव की ित्रि को प्राप्त कर पाता है। मंियोग की जप साधना से मंि दक्रयािील होता है। साधक अपनी चेतना को त्रवश्व व्यापी चेतना के सार् अशभन्न अनुभव करता है, एकता का अनुभव करता है। लययोग शचि का लय है। गोरखनीनार् की दृत्रष्ट में नाद-लय सवशसुलभ नादोपासना है। नाद शिव-ित्रि का पारस्पररक सबिंध है। शनगुशण शिव तो त्रविुर्द् चतैन्य है। सगुण शिव उपाशधयुि है। उपाशधयुि शिव से उपाशधयुि ित्रि उत्पन्न होती है। इन दोनों के संयोग से त्रवश्व में त्रविोप होता है। यही नाद है। लय का ध्येय राजयोग की प्राशप्त है – “सव ेहठलयोपाया राजयोगस्य शसर्द्ये”। सदैव अभ्यासरत रहने पर ही लयभाव अशधगत होता है।

हठयोग एवं राजयोग पररपूरक हैं। हठयोग से काय या त्रपण्ड की शसत्रर्द् होती है। इसके िाद राजयोग से समाशध की शसत्रर्द् होती है। त्रिन्द,ु प्राण एवं मन तीनों एक दसूरे से सबिर्द् हैं। एक के ब्स्र्र होने से दसूरे को ब्स्र्र करने में सहायता शमलती है। यह जरूर है दक इन तीनों को ब्स्र्र करने के शलए अलग-अलग प्रयत्न एवं अभ्यास भी करना होता है। ब्जस साधक का त्रिन्द ुअशसर्द् होता है उसे कठोर प्राणायाम का अभ्यास करना होता है। अिुत्रर्द् की ब्स्र्शत में वायु अर्वा प्राण इडा और त्रपंगला के िीच वक्रभाव से घूमता रहता है। त्रिन्द ुसाधना से देह या काया का मल हट जाता है। इससे साब्त्वक तेज का उदय होता है। पररणाम होता है दक वायु हल्की हो जाती है। इस ब्स्र्शत में सूक्ष्म वायु अर्वा सूक्ष्म प्राण वाम भाग में ब्स्र्र इडा और दब्िण भाग में ब्स्र्त त्रपंगला की जगह मध्य देि में ब्स्र्त सुषुबना में नीचे ऊपर संचरण करने लगती है, कभी-कभी ब्स्र्र भी होने लगती है। यही अजपा-दक्रया है। गोरखनीनार् का कर्न है –

अवध ूजाप जपौ जपमाली। चीन्हौ, जाप जप्यां फल होई ( अवधतू, जपमाला पहचानो और वह जप करो ब्जससे ( ब्रह्मानुभूशत स्वरूप) यर्ार्श की प्रतीशत हो। ( गोरखनीिानी)। पंदडत गोपीनार् कत्रवराज ने अजपा रहस्य की त्रववेचना करते हुए शलखनीा है दक “प्रणव-जप का रहस्य अवगत होने पर यह समझ में आ सकता है दक अजपा-जप ही श्रषे्ठ जप है एवं अन्य सभी जपों की चरम अवस्र्ा का स्वाभात्रवक जप है”। ( भारतीय संस्कृशत और साधना (प्रर्म खनीण्ड) पषृ्ठ 343, त्रिहार-राष्ट्रभाषा-पररषद्, पटना)। स्वभाव की पे्ररणा से मन के संकल्प और त्रवकल्प की वतृ्रि शतरोदहत होने लगती है। पररणाम होता है – संकल्प िुत्रर्द्। इससे मन ब्स्र्र हो जाता है। सत्य संकल्प का उदय होता है। साधना की उत्कट अवस्र्ा में इसका भी िय हो जाता है। वतृ्यात्मक ज्ञानेछिा की शनवतृ्रि हो जाती है। परमान्द की उपलब्दध होती है। अि कोई संकल्प-त्रवकल्प की ब्स्र्शत नहीं रह जाती, कोई अवस्र्ा नहीं रह जाती। स्वभाव की उपलब्दध हो जाती है। सहज की उपलब्दध हो जाती है। संकल्प-त्रवकल्प की ब्स्र्शत न रहने के कारण साधक का शचि त्रवश्रांत हो जाता है। इसके िाद परमानंद ज्योशत का आत्रवभाशव होता है। इसी समय स्वत्रपण्ड, ब्रह्माण्ड और ित्रि का परमपद से एकत्व स्र्ात्रपत होता है। यही समरसता है, समरसीकरण है। यह स्वभाव है, समरसभाव है, अद्वयावस्र्ा है, शचदानंदमयी अदै्वतशनष्ठा है, दै्वत एवं अदै्वत से अतीत परम तत्व है। यहीं अमतृ का वास है – “गगन मँडल मैं ऊँधा कूिा, तहाँ अमतृ का िासा”।

(ख)आगशमक िैव मिाः

1.िैव शिद्धांि एव ंिशमल िैवाः

िैव शसर्द्ांत प्रार्शमक देवता के रूप में भगवान शिव को मानता है। इसका उदय उिर भारत में हुआ तर्ा इसके शसर्द्ांतों का शनरूपण संस्कृत में हुआ। इसका त्रवकास दब्िण भारत में हुआ तर्ा ग्रंर्ों का शनमाशण तशमल भाषा में हुआ। इसी कारण दब्िण भारत में यह तशमल िैव के नाम से जाना जाता है। इनकी शिव सबिंधी मान्यताएँ वैददक एवं पौराब्णक परबपरा की शिवोपासना से अलग हैं। इनके शसर्द्ांत दिशन का मूल आधार आगम एवं िैव तंि सादहत्य है। तशमलनाडु का िैव-धमश तशमल िैव ही है।

तशमलनाडु में पाँचवीं िताददी से नौवीं िताददी तक िैव मत का िहुत अशधक प्रचार-प्रसार हुआ। दब्िण में िैव शसर्द्ांत सिसे पहले नायनारों की शिवभत्रि परक रचनाओं में मुखनीर हुए। शतरसठ (63) शिवभि “नायनार” या “नायनमार“ नाम से त्रवख्यात हुए। गीत-संग्रह “तेवारम” में शिवभिों के पद संकशलत हैं। इसके 11 खनीडं हैं। इसके आठवें खनीडं का नाम “शतरुवाचकम” है ब्जसे तशमल भाषा का उपशनषद कहा जाता है। 13 वीं एवं 14 वीं िताददी में मेयकंठदेवर, अरुलनंदी, मरई ज्ञानसंिंधर और उमापशत ने िैव मत के 14 शसर्द्ांत ग्रंर्ों का प्रणयन दकया। इनके पूवश के िैव शसर्द्ांतों के सूि आठवीं िताददी में कांचीपुरम ्के कैलािनार्र मंददर में पत्र्र की शिलाओं पर उत्कीणश हुए।

सामान्य दिशन की िददावली में ईश्वर, आत्मा एवं िंधन का व्यवहार होता है। िैव शसर्द्ांत में इन्हें क्रमिः पशत, पिु एवं पाि के नाम से अशभदहत दकया गया है। इनके शसर्द्ांत ग्रंर्ों में पशत, पिु और पाि इन तीन मूल तत्वों का गबभीर त्रववेचन हुआ है। इनके अनुसार जीव पिु है जो अज्ञ और अणु है। जीव पिु चार प्रकार के पािों से िर्द् हैं। (1)मल (2) कमश (3) माया (4) रोध। साधक को आध्याब्त्मक साधना के शलए चार मागों का अनुसरण करना चादहए। ये मागश हैं : (1) चयाश (2) दक्रया (3) योग (4) ज्ञान या त्रवद्या। साधना के द्वारा जि पिु पर पशत का ित्रिपात होता है ति वह पाि से मुि हो जाता है। इसी को मोि कहते हैं। वस्तुतः शिव अपनी ित्रियों से व्यामूढ होकर पिु िनता है। पिु भाव के पररहार से शिव भाव का उन्मेष हो जाता है। दसूरे िददों में पिु का शिव भाव में लौटना आत्मा का शनत्य स्वरूप में लौटना है, शिव हो जाना है।

2.काश्मीरीय िैव मिाः

काश्मीरीय िैव मत दािशशनक दृत्रष्ट से अदै्वतवादी है। अदै्वत वेदान्त और काश्मीरीय िैव मत में साबप्रदाशयक अन्तर यह है दक िांकर अदै्वतवाद का ब्रह्म शनब्ष्क्रय है दकन्तु काश्मीरीय िैवमत का परमेश्वर कतृशत्व सबपन्न है। िांकर अदै्वतवाद में ब्रह्म शनगुशण, शनत्रवशकार चतैन्य माि है। काश्मीरीय दिशन में परमेश्वर कतृशत्व सबपन्न है अर्ाशत उसमें स्वातंत्र्य है, वह आनंद ित्रि स्वरूपा है। दसूरे िददों में परम केवल शचत ्स्वरूप ही नही है। वह शचत ्और आनन्द स्वरूप है। स्वातंत्र्य एवं कतृशत्व सबपन्न होने के कारण वह पंचकृत्य करता रहता है। ये पंच कृत्य हैं – (1) सतृ्रष्ट (2) ब्स्र्शत (3) संहार (4) अनुग्रह (5) त्रवलय।

अदै्वतवाद में ज्ञान की प्रधानता है, उसके सार् भत्रि का सामंजस्य पूरा नहीं िैठता। ज्ञान ही मोि का साधन है। उसके िाद भत्रि की कोई सिा नहीं रह जाती। काश्मीरीय िैवमत में ज्ञान और भत्रि का सुन्दर समवन्य है। ज्ञान होने पर परम के प्रशत भत्रि का उदय होता है। यही ज्ञानोिरा-भत्रि या पराभत्रि है। जीवात्मा और परमात्मा के मधरु शमलन में जीवात्मा की सिा नष्ट नही होती। उसे सामरस्य का अनुभव होता है, शचदानन्द की उपलब्दध होती है। यही शिव-ित्रि का सामरस्य है। वेदांत के ब्रह्मानंद में आस्वादन नहीं है, चवशण नहीं है। काश्मीरीय िैव मत में रस है, आनन्द है। इस संदभश में सहसा जयिंकर प्रसाद की कामायनी की पंत्रियाँ याद आ रही हैं –

समरस र्े जड या चेतन, सुन्दर साकार िना र्ा।

चेतनता एक त्रवलसती, आनंद अखनीडं घना र्ा।।

अदै्वतवाद वेदान्त में जगत ब्रह्म का त्रववतश (भ्रम) है। काश्मीरीय िैवमत में जगत ब्रह्म का स्वातन्त्र्य अर्वा आभास है। यह परम शिव से अशभन्न है।शिव ही अपनी शससिृा-रूपा ित्रि के कारण इस जगत के रूप में हैं। त्रवश्व शिव का स्फुरण माि है।

काश्मीरीय िैव दिशन के मुख्य ग्रन्र् ‘शिव दृत्रष्ट’ (सोमानन्द), ‘ईश्वरप्रत्यशभज्ञाकाररका’ (उत्पलाचायश), ईश्वरप्र्तत्यशभज्ञाकाररकात्रवमशिशनी’ और ‘तन्िालोक’(अशभनवगपु्त) हैं।

रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने काश्मीरीय िैवागम को दो भागों में त्रवभि दकया है :

(1) स्पन्द िास्त्र ( प्रचारक – वसुगुप्त )

(2) प्रत्यशभज्ञा िास्त्र ( प्रवतशक – सोमानंद )

इनमें तत्त्व भेद नहीं है। दोनों िाखनीाओं में कोई ताब्त्त्वक भेद नहीं है; केवल मागश का भेद है। स्पन्द िास्त्र में ईश्वर अदै्वय की अनुभूशत का मागश ईश्वरदिशन और उसके द्वारा मलशनवारण है। प्रत्यशभज्ञािास्त्र में ईश्वर के रूप में अपनी प्रत्यशभज्ञा है, अपने को पहचानना है। इन दोनों िाखनीाओं के दिशन को ‘त्रिक दिशन’ अर्वा ईश्वराद्वयवाद’ भी कहा जाता है।

इस दिशन को त्रिक दिशन इसशलए कहा जाता है क्योंदक िैव शसर्द्ांत की भाँशत इसमें भी पशत, पिु और पाि नामक तीन पदार्ों की सिा है। ( पशतपिुपािभेदात ्ियः पदार्ाश इशत। - सवश दिशन संग्रह, पषृ्ठ 154, मध्वाचायश, गंगात्रवष्णु श्रीकृष्णदास, लक्ष्मी वेंकटेश्वर पे्रस, िबिई (1957))।

पशत से अशभप्राय है – शिव ( ति पशत पदार्शः शिवोशभमतः। वही, पषृ्ठ 155)। जीवात्मा पिु है ( अनणुिेिज्ञाददपदवेदनीयो जीवात्मा पिुः। वही, पषृ्ठ 159)। पाि से अशभप्राय सांसाररक िंधनों से है जो मल, कमश, माया और रोध के भेद से चार प्रकार के होते हैं ( पािितुत्रवशधो मलकमशमायारोधित्रिभेदात।् वही, पषृ्ठ 165)। पदार्श िय का त्रववेचन करने के कारण इसे त्रिक दिशन, त्रिक िास्त्र या त्रिक भी कहा जाता है।

इस दिशन में पिु और पाि नामक पदार्ों की स्वतंि सिा नहीं है। वे पिपुशत के प्रसार माि हैं। परमशिवभटटारक के स्फुरण हैं।

“ श्रीमत्परमशिवस्य पुनः त्रवश्वोिीणश-त्रवश्वात्मक-परमानन्दमय-प्रकािैकघनस्य - - - - अब्खनीलम ्अभेदेनैव स्फुरशतः , - - - श्री परमशिवभटटारक एव इत्र् ंनानावैशचत्र्यसहस्त्रैः स्फुरशत।“

(िेमराज - प्रत्यशभज्ञा हृदयम,् पषृ्ठ 8, संपादक – जगदीि चन्द्र चटटोपाध्याय, पुरातत्व तर्ा िोध त्रवभाग, जबमू-कश्मीर (1911))।

इस दिशन में ित्रि शिव भटटारक अर्वा परमेश्वर की ित्रि है। इस कारण इसे पारमेश्वरी तर्ा िैवी ित्रि कहा गया है। यह शिव की ज्ञानजे्ञयारूपा परम ित्रि है।

“ज्ञानजे्ञयस्वरूत्रपण्या िक्त्या परमया युतः “। (स्पदंकाररका, 2/2, व्याख्याकार – रामकंठाचायश, पुरातत्व तर्ा िोध त्रवभाग, जबमू-कश्मीर (1913))।

शिव की इसी ित्रि से उद्भतू होने के कारण सारा त्रवश्व शिव की ित्रि से युि है।

स्वित्रिप्रचयो स्य त्रवश्वम ्( वसुगुप्त - शिवसूि-त्रवमशिशनी, 3/30, व्याख्याकार – िेमराज, पुरातत्व तर्ा िोध त्रवभाग, जबमू-कश्मीर, (1911))।

शिव के सार् ित्रि उस तरह अशभन्न एवं अभेद रूप में त्रवद्यमान रहती है, ब्जस तरह दहम के सार् िीतलता, अब्ग्न के सार् उष्णता, दीपक के सार् आलोक तर्ा सूयश के सार् तापमयी दकरणें।

न दहमस्य परृ्क् िैत्य,ं नाग्नेरौष्ण्यं परृ्ग्भवेत।् ( सोमानन्द - शिवदृत्रष्ट 3/6, व्याख्याकार – उत्पलदेव, पुरातत्व तर्ा िोध त्रवभाग, जबमू-कश्मीर (1934))।

यर्ालोकेनदीपस्य दकरणैभास्यश च। ज्ञायते ददब्ग्वभादद तद्वछिक्त्या शिवः त्रप्रये।। ( त्रवज्ञान भैरव, 21, व्याख्याकार – िेमराज, पुरातत्व तर्ा िोध त्रवभाग, जबमू-कश्मीर (1918))।

यह दिशन शिव तर्ा ित्रि में दकसी प्रकार का कोई भेद स्वीकार नहीं करता। एक ओर स्वतंि आत्मा रूप शिव शचशत-ित्रि है (स्वातंत्र्यात्मा शचशतित्रिरेव) तो दसूरी ओर व्योमाकार रूपा, त्रवश्वव्यात्रपनी एवं शनराश्रया भगवती शचत-्ित्रि स्वतंि रूप से अनन्त जगत ्के रूप में स्वयं प्रकट होती है ( शचदेव भगवती स्वछिस्वतंिरूपा तिदनन्तजगदात्मना स्फुरशत)

( देखनीें – प्रत्यशभज्ञाहृदयम,् पषृ्ठ 13 एवं पषृ्ठ 3 )।

इस अद्वयवाद की त्रविद व्याख्या डॉ. श्री गोपीनार् कत्रवराज ने की है। उसका सार है – “यहाँ अदै्वत का अर्श है – दो का शनत्य सामरस्य। शिव और ित्रि अशभन्न हैं। उन्मेष और शनमेष को लक्ष्य करने पर शिव प्रधान एवं ित्रि प्रधान रूप हैं। ित्रि प्रधान अवस्र्ा में भी शिवभाव रहता है। प्रकािमय शिवभाव में ही त्रवमिाशत्मक ित्रि का त्रवकास-स्वरूप त्रवश्व प्रशतत्रिब्बित होता है। शिवप्रधान अवस्र्ा में भी ित्रिभाव रहता है, त्रवश्विीज-ित्रि उस समय प्रकाि में त्रवलीन रहती है। ित्रि ही अन्तमुशखनी होने पर शिव है और शिव ही िदहमुशखनी होने पर ित्रि। शिवतत्त्व में ित्रिभाव गौण और शिवभाव प्रधान है। ित्रितत्त्व में शिवभाव गौण और ित्रिभाव प्रधान है। जहाँ शिव और ित्रि दोनों एकरस हैं, वहाँ न शिव का प्रधान्य है और न ित्रि का। वह साबयावस्र्ा है। यही शनत्य अवस्र्ा है। यही तत्त्वातीत है।“ (देखनीें - भारतीय संस्कृशत और साधना (प्रर्म खनीण्ड), पषृ्ठ 3 -17, त्रिहार-राष्ट्रभाषा-पररषद् , पटना)

प्रत्यशभज्ञा दिशन के आचायों ने भत्रि को रस के रूप में स्वीकार कर भत्रि को रसस्वरूपा िना ददया। इसी कारण भत्रि सादहत्य को ब्जन दिशन शसर्द्ांतों ने प्रभात्रवत दकया है उनमें काश्मीरीय िैवागमों का स्र्ान सवोपरर है। लेखनीक ने दहन्दी शनगुशण भत्रि सादहत्य पर त्रवचार करते हुए इस मत का प्रशतपाददत दकया है। यद्यत्रप यह तथ्य है दक सभी संतों के त्रवचारों में अनेक दािशशनक शसर्द्ान् तों का प्रशतपादन हुआ है तर्ा इनकी रचनाओं में अत् यंत व् यापक, मानवीय, उदार उवं उदात् त चेतना की अशभव्यत्रि हुई है तर्ात्रप इनके दािशशनक शसर्द्ान् तों एवं भब्क् त-प्रवाह को िैव दिशन तर्ा उसमें भी काश्मीरीय िैवागमों की पषृ्ठभूशम में अछिी तरह से समझा जा सकता है । लेखनीक ने यह संकेत भी दकया है दक भब्क् तकाल के सादहत् य की रस साधना में जो भब्क् त है वह तत् वतः आत् मस् वरूपा िब्क् त ही है। सभी संतों का लक्ष् य भाव से पे्रम की ओर अग्रसर होना है। पे्रम का आत्रवभाशव होने पर ‘भाव' िांत हो जाता है। भक् त महापे्रम में अपने स् वरूप में प्रशतब्ष् ठत हो जाता है। सूदफयों ने भी भाव के केन् द्र को भौशतक न मानकर शचन् मय रूप में स् वीकार दकया है तर्ा कृष् ण भक् तों की भाव साधना में भी भाव ही ‘महाभाव' में रूपान् तररत हो जाता है। कृष् ण भक् त कत्रवयों के काव् य में भी राधा-भाव आत्म-ित्रि के अशतररि अन्य नहीं है। (रचनाकार मध्य युगीन संतों : आलेखनी महावीर सरन जैन का :... 4 अिू 2009 ... मिावीर िरन जैन का आलेखनी : मध्य युगीन संतों का शनगुशण-भत्रि -काव्य : कुि प्रश्न. [मध् य युग ने मोि का अशतक्रमण कर, भब्क् त की स् र्ापना की। दहन् दी सादहत् य के इशतहास में भब्क् तकाल का त्रववेचन करते समय त्रवद्वानों ने शनगुशण भब्क् त ... www.rachanakar.org/2009/10/blog-post_1347.html)।

3.वीर िैव या शलंगायि धमााः

वीर िैव मत के संस्र्ापक महात्मा िसव रे्। इनका प्रभाव िेि कनाशटक है। डॉ. पांडुरंगराव भीमसेनराव देसाई ने इनका जीवन काल सन ्1105 से 1167 ईस्वी माना है। (िसवेश्वर एण्ड दहज टाइबस, पषृ्ठ 298 – 299, कनाशटक यूशनवशसशटी, धारवाड ( 1994)))। िसव एवं उनके वीरिैव धमश के 700 शिविरण और 700 शिविरब्णयों के त्रवचार-त्रवमिश के फलस्वरूप रशचत िसव-वचनों की संख्या एक लाखनी शियानवे हजार मानी जाती है। डॉ. आर. सी. दहरेमठ ने 1393, डॉ. एम. एम. कलिुगत ने 1426 और डॉ. भगवानदास शतवारी ने 1450 वचनों का संग्रह दकया है। डॉ. दहरेमठ के “श्री शसर्द्रामेश्वर वचनगऴु” तर्ा “िसवण्णनवर वचनगऴु” तर्ा कलिुगत का “समग्र वचन संपुट” कन्नड में हैं। जो अध्येता दहन्दी में वचन-सादहत्य की जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं, वे शनबन ग्रंर्ों का अध्ययन कर सकते हैं :

1. िसव वचनामतृः उमापशत िास्त्री, िसव सशमशत, िंगलुरू (1967))।

2. िसवेश्वर के चनेु हुए वचनः राजेश्वरय्या, वचन मंटप, िेलगाम (1952))।

3. भत्रि भंडारी िसवेश्वर के वचनः सु. रामचंद्र आदद, कनाशटक त्रवश्वत्रवद्यालय, धारवाड, भाग-1 (1976), भाग-2 (1978))।

4. महात्मा िसवेश्वर के वचनः आर. सी. भूसनूरमठ और एस. आर. भूसनूरमठ, कनाशटक प्रांतीय दहन्दी प्रचार सभा, धारवाड (1970))।

5. वचन-संपादकः भालचदं्र जयिेटटी, कनाशटक सादहत्य अकादमी, िंगलुरू (1918))।

6. त्रवश्वत्रवभूशत श्री िसव-वचनः डॉ. भगवानदास शतवारी, िसव सेंटर, सोलापुर (1997))।

7. वचन-सादहत्य (शचतंन और संिोधन) : डॉ. भगवानदास शतवारी, िसव धमश प्रचार संस्र्ा, दहरेमठ संस्र्ान, भालकी (1998))।

इन वचनों में परशिव, जगत, जीवन, अगं, साधना आदद का सांगोपांग शनरूपण हुआ है। स्र्ल का अर्श परशिव है। महास्र्ल में सतृ्रष्ट आत्रवभूशत होती है, अब्स्तत्व में रहती है। अतंतोगत्वा लय होने पर उसी में समा जाती है। सतृ्रष्ट परशिव की लीला है। सतृ्रष्ट के आत्रवभाशव के पहले और उसके शतरोभाव के िाद भी परशिव स्वयंभू रूप में, वैब्श्वक चतैन्य रूप में, शलंग रूप में त्रवद्यमान रहते हैं। “शलंगमध्ये जगत ्सवशम”् इस मत की आधारभूत मान्यता है। वीर िैव मत को शलंगायत भी कहते हैं, क्योंदक इसके अनुयायी िरािर िरीर पर इष्टशलंग धारण दकए रहते हैं।

डॉ. भगवानदास शतवारी ने िसव या शलंगायत या वीरिैव धमश का सार इन िददों में व्यि दकया है :

“1.धमशगुरुः श्री िसवेश्वर 2. धमश ग्रंर्ः वचन सादहत्य 3. धमश शचह्नः इष्टशलंग 4. धमश ध्वजः षटस्र्ल ध्वज 5. धमश कें द्रः िसवकल्याण 6. धमशिेिः महात्मा िसवेश्वर का शलंगैक्य स्र्ल – कूडलसंगम 7. धमश भाषाः कन्नड 8. धमश ध्येयः वणश, वगश, जाशत-रदहत मानव-समता-मूलक िरण अर्ाशत ्आदिश मानव समाज की शनशमशशत।“

( जगज्ज्योशत महात्मा िसवेश्वर, पषृ्ठ 79, िसव सेंटर प्रकािन, सोलापुर, (1999))।

िैव मत के उपयुशि सबप्रदायों में इतना गबभीर, गहन एवं त्रविद त्रववेचन हुआ है ब्जसको एक लेखनी में समेटना असबभव है। इनका सार यह है दक शिव का व्यत्रि की दृत्रष्ट से अशभप्राय है – स्वयं की आत्म-ित्रि। समत्रष्ट की दृत्रष्ट से अशभप्राय है – स्वयंभू शिव। शिव-ित्रि अशभन्न हैं।

यह िांकर-अदै्वतवाद नहीं है। िैव मत के त्रवशभन्न सबप्रदायों की त्रवचारणा के अनुसार द्वयात्मक-अद्वयवाद या ईश्वराद्वयवाद या दै्वतादै्वत-त्रवलिणतावाद या ित्रि-त्रवशिष्ट-अदै्वतवाद है।

शिवाः ववरोधी भावों का िामंजस्य एवं िामरस्य

शिव में परस्पर त्रवरोधी भावों का सामंजस्य देखनीने को शमलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चदं्र है, तो दसूरी ओर महात्रवषधर सपश उनके गले का हार है।। वे कामेश्वर या अर्द्शनारीश्वर होते हुए भी कामब्जत हैं, वीतरागी हैं। गहृस्र् होते हुए भी श्मिानवासी हैं। सौबय तर्ा आिुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं।

महाभारत का अध्ययन करने पर हमें शिव के परस्पर त्रवरोधी गुणों का उल्लेखनी शमलता है। महाभारत के अनुिासन पवश में ही शनबन त्रवरोधी गुणों के प्रसंग देखेनी जा सकते हैं : (1)ब्स्र्र/जंगम (2) गोचर/अगोचर (3) सुरूप/त्रवरूप (4) सत/्असत ्(5) व्यि/अव्यि (6) पर/अपर (7) सूक्ष्मात्मा/महारूप (8) गुह्य/अगुह्य।

पुराणों में भी शिव के त्रवरोधी गुणों के उल्लेखनी प्राप्त हैं : (1) त्रवष्णुरूत्रपन ्/ रुद्ररूत्रपन ्(2) वरदाता / दण्डदाता (3) िर / अिर (4) द्रष्टा / दृष्य (5) व्याप्य / व्यापक (6) त्रवश्व / त्रवशे्वश्वर (7) कूटस्र् /कूटवब्जशत (8) एक /अनेक (9) भोिा /भोग्य (10) स्र्लू / सूक्ष्म (11) मतूश / अमूतश (12) सौबय / कराल।

िैवागमों में भी शिव के त्रवरोधी गुणों का प्रशतपादन शमलता है : (1) प्रमेय / अप्रमेय (2) प्रमाता / प्रमेय (3) कायश / कारण (4) त्रवश्वमय / त्रवश्वोिीणश (5) अन्तमुशखनी / िदहमुशखनी (6) सवश / सवाशतीत (7) वाछय / वाचक (8) स्र्लू / सूक्ष्म (9) व्याप्य / व्यापक (10) गोचर / अगोचर (11) शचत ्/ अशचत ्(12) शनत्य / अशनत्य।

शिव पररवार भी इससे अिूता नहीं हैं। उनके पररवार में भूत-पे्रत, नंदी, शसंह, सपश, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखनीने को शमलता है। वे स्वयं दं्वद्वों से रदहत सह-अब्स्तत्व के पोषक एवं समरसता के प्रतीक हैं।

िैव मि की पाररभाविक िब्दावली एवं प्रिीकाथााः

पाररभाविक िब्दावलीाः

िैव मत या सबप्रदाय के ब्जन उपसबप्रदायों के तत्त्व-दिशन की त्रववेचना की गई है, उससे यह स्पष्ट है दक इनमें त्रवशिष्ट अर्वा पाररभात्रषक िददों का भी प्रयोग हुआ है। इस पाररभात्रषक िददावली के त्रविेष अर्ों को हृदयंगम करने के िाद ही िैवागमों के शसर्द्ांतो को सबयक् रूप में समझा जा सकता है। यहाँ इस पाररभात्रषक िददावली का अर्श ताब्त्वक अध्ययन प्रस्तुत करने का अवकाि नहीं है। त्रववेचना के प्रसंग में कुि िददों के त्रवशिष्ट अर्ों की ओर संकेत दकया जा चकुा है। यहाँ कुि पाररभात्रषक िदद प्रस्तुत दकए जा रहे हैं। लेखनीक की कामना है दक िोधक इन पाररभात्रषक िददों का गहन एवं त्रविद् अध्ययन प्रस्तुत करें तर्ा अध्ययन-परबपरा को आगे िढाएँ।

ये शनबन हैं – (1) अकुल (2) अकुलावस्र्ा (3) अजपा-जप (4) अणु (5) अमनस्क योग (6) अत्रवनश्वर (7) अष्ट मूशतश (8) अष्टावरण (9) अहं (10) अहंता (11) आिुतोष (12) इछिा (13) इदम ्(14) इष्टशलंगोपासना (15) ईिान (16) उन्मना (17) उमा (18) एकशलंगेश्वर (19) कंचकु (20) कला (21) कापाशलक (22) काम (23) कामेश्वर (24) कौल (25) शचशत (26) शचन्मयीकरण (27) जप-साधना (28) तांडव (29) शतरोभाव (30) त्रिक (31) त्रिपुर (32) त्रिपुरारी (33) त्रित्रवध मल (34) त्रित्रवध पाि (35) दृश्य (36) द्वन्द्व (37) द्वयात्मक अद्वय (38) दै्वतादै्वत त्रवलिणवाद (39) नटराज (40) नार् (41) नादानुसंधान (42) शनजावेि (43) शनत्य लीला (44) शनरुत्र्ान (45) पंचकृत्य (46) पंच तत्व (47) पंचाचार (48) परत्रपण्ड (49) परमित्रि (50) परमाणु (51) परा (52) पराित्रि (53) पिु (54) पिुपशत (55) पाि (56) त्रपण्ड (57) त्रपण्डपद समरसीकरण (58) त्रपण्डब्रह्माण्डैक्यवाद (59) प्रत्यशभज्ञा (60) प्रारदध (61) त्रिन्द ु(62) भव (63) भवानी (64) भूतनार् (65) मंि (66) मल (67) महाकापाशलक (68) महाशचशत (69) महाकाल (70) महामाया (71) महाशलंगम (72) महाित्रि (73) राजयोग (74) लययोग (75) लयीभूत (76) शलंग (77) शलंगेश्वर (78) त्रवद्या (79) त्रवमिश (80) त्रवश्वात्मा (81) वशै्वानर (82) ित्रि (83) ित्रिपात (84) शिव (85) शिव- लोक (86) षट् (87) षट् कंचकु (88) षोडोिोपचार (89) संहार (90) समरसता (91) समररसीकरण (92) सहजावस्र्ा (93) सामरस्य (94) सामरस्यवाद।

प्रिीकाथााः

भगवान शिव की दो रूपों में उपासना करने का त्रवधान हैः (क) शिवशलंग (खनी) शिव की मूशतश

(क) शिवशलंग (अव्यक्त का मूिा प्रिीक)

अशधकांि मंददरों में शिवशलंग की पूजा की जाती है। पूब्जत शिवशलंग के दो प्रकार हैं। मानव द्वारा शनशमशत 2. प्राकृशतक रूप से पाए जाने वाले ( उदाहरणार्श, कश्मीर में अमरनार् गुफा में ब्स्र्त

स्वयंभू िफाशनी िािा)। मैंने ऐसे अनेक शिव मंददरों के दिशन दकए हैं जहाँ के पंदडत पुराणों के संदभश देकर यह शसर्द् करते हैं दक इस मंददर का शिवशलंग मनुष्य के द्वारा शनशमशत नहीं है। ये स्वयंभू धरती से शनकले हैं। इनका आधार ऐशतहाशसक प्रमाण नहीं अत्रपतु जनश्रशुतयाँ हैं।

कुि पब्िमी त्रवद्वानों ने प्रशतपाददत दकया है दक शिवशलंग लौदकक शलंग की ित्रव है। इसका कारण उनका भारतीय आध्याब्त्मक परबपरा से अनशभज्ञता प्रतीत होता है। हम पहले उन द्वादि ज्योशतशलिंगों पीठों का त्रववरण दे चकेु हैं जहाँ शिव की पूजा ज्योशतशलिंग के रूप में की जाती है और ब्जन पीठों के महात्बय की पौराब्णक गार्ाएँ प्रशसर्द् हैं। भारत में शिव के द्वादि-ज्योशतशलिंग-पीठों के अशतररि अन्य असंख्य मंददर हैं ब्जनमें शिवशलंग की पूजा की जाती है। िैव मत में शिवशलंग के कई प्रतीक-अर्श मान्य एवं प्रचशलत हैं।

1. शिवशलंग का अडंाकार ब्रह्माण्ड का प्रतीक है।

2. शिवशलंग आत्मा का प्रतीक है।

3. यह भगवान के सार् आत्मा के एकीकरण का प्रतीक है।

4. यह परशिव या शनराकार शिव का प्रतीक है जो िांकर अदैत-दिशन के ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) के तुल्य है। यह शिव का त्रविुर्द् रूप है। इसे िददों में व्यि नहीं दकया जा सकता, क्योंदक यह िददातीत है। यह अनुभूशतगबय है। ब्जन योशगयों को इसकी अनुभूशत हुई है, उन्होंने परमानंदानुभूशत के संकेत दकए हैं। यह ब्रहाण्ड की सिा का परम कारण है।

शिव सबप्रदायों के िसवेश्वर के वीरिैव या शलंगायत सबप्रदाय की त्रववेचना के संदभश में यह शनददशष्ट दकया जा चकुा है दक इस सबप्रदाय में शिव की पूजा केवल शिवशलंग के रूप में ही की जाती है। इस सबप्रदाय के अनुयायी सदैव इष्टशलंग धारण करते हैं।

शिवशलंग को कुि मंददरों में चार मुखनीों के सार् भी ददखनीाया गया है। इसे पंचमुखनीी शिव कहते हैं। प्रदशिशत चार मुखनी चार ददिाओं के द्योतक हैं। पाँचवा अदृश्य है। पंचमुखनीी शिव सदाशिव या अनन्त शिव का एक रूप है।

(ख) शिव की मशूिा (शिव का व्यक्त रूप)

भगवान शिव की मूशतशयों के त्रवशभन्न प्रकार हैं। ब्जन त्रवद्वानों ने शिव मूशतश-कला पर कायश सबपन्न दकया है, उन्होंने त्रवशभन्न प्रकार की मूशतशयों तर्ा उनके भेद – प्रभेदों की मीमांसा की है। मूशतशकला की दृत्रष्ट से मंददरों में शिव की शनबन प्रकार की मूशतशयाँ अशधक शमलती हैं।

1. दब्िणामूशतशः चतुभुशज शिव प्रशतमा। इसमें त्रििूल, डमरू, सपश, चदं्रमा, जटाजूट, गंगा आदद उत्कीणश होते हैं।

2. अधश-नारीश्वरः मूशतश के िायें भाग में शिव त्रििूल, कमंडल, सपश, जटाजूट, नर-कपाल आदद धारण दकए रहते हैं।

3. नटराजः शिव का तांडव-नतृ्य प्रदशिशत करने वाली मूशतश। इसमें शिव के नटराज रूप का अकंन रहता है। नट अर्ाशत ्नतृ्यादद कला। राज अर्ाशत ्भगवान। इसमें चतभुुशज शिव का रूप-त्रवधान शनबन प्रकार से उत्कीणश होता है।

(क) ऊपरी दादहने हार् में डमरू (खनी) ऊपरी िाएँ हार् में अब्ग्न (ग) शनचला दादहना हार् अभय मुद्रा में (घ) शनचला िायाँ हार् ऊठे हुए पैर की ओर संकेत करते हुए (च) दादहना पैर अपस्मार असुर या दैत्य को दिाए हुए (ि) िायाँ पैर हार्ी के पैर की आकृशत में आगे की ओर ऊठा हुआ (ज) चारों ओर अब्ग्न की लपटों का वलय (झ) केि-पाि (जटायें) खनीलेु हुए, त्रिखनीरे हुए तर्ा उडते हुए।

नटराज-शिव का मुख्य मंददर तशमलनाडु के शचदबिरम में ब्स्र्त है। दब्िण भारत के अन्य शिव मंददरों में मुख्य शलंग-मंददर या शिव की अन्य प्रकार की मूशतश के अगल-िगल में प्रायः एक नटराज का मंददर या नटराज की ित्रव रहती है।

भगवान शिव की मूशिायों के चशचाि एवं मित्सवपूणा प्रिीकाः

(अ) वत्रिलूाः इसके कई प्रतीकात्मक अर्श हैं –

1. एक अस्त्र के रूप में यह िुराइयों को नष्ट करने की िमता का द्योतक है।

2. त्रििूल के तीन िूल सतृ्रष्ट के क्रमिः उदय, संरिण और लयीभूत होने का प्रशतशनशधत्व करते हैं। िैव मतानुसार शिव इन तीनों भूशमकाओं के अशधपशत हैं।

3. यह िैव शसर्द्ांत के पिुपशत, पिु एवं पाि का प्रशतशनशधत्व करता है।

4. यह प्रकृशत के त्रिगुणों अर्ाशत ्सत्व, रजस तर्ा तमस का प्रशतशनशधत्व करता है।

5. यह महाकालेश्वर के तीन कालों (वतशमान, भूत, भत्रवष्य) का प्रशतशनशध है।

6. यह स्वत्रपण्ड, ब्रह्माण्ड और ित्रि का परमपद से एकत्व स्र्ात्रपत होने का प्रतीक है।

7. यह वाम भाग में ब्स्र्र इडा, दब्िण भाग में ब्स्र्त त्रपंगला तर्ा मध्य देि में ब्स्र्त सुषुबना नादडयों का प्रतीक है।

8. ज्योशति-िास्त्र में त्रििूल मंगल से सबिर्द् है।

(आ) डमरूाः

मान्यता है दक नाद का उद्भव भगवान शिव के डमरू िजाने से हुआ। सगंीत में अन्य स्वर तो आते-जाते रहते हैं, उनके िीच त्रवद्यमान केन्द्रीय स्वर नाद है। अनुभवी संगीतज्ञ ही इस नाद का आनंद ले पाते हैं। नाद से ही वाणी के चारों रूपों की उत्पत्रि मानी जाती है। (1) पर (2) पश्यतंी (3) मध्यमा (4) वैखनीरी। वैखनीरी रूप से अिर या वणश उत्पन्न होते हैं। मनषु्य के द्वारा जो भाषा-रूप िोले जाते हैं, उनका आधार वैखनीरी वाणी ही है। पर-वाणी-रूप महात्रिन्द ुके स्फोट के पूवश की ब्स्र्शत है। इस कारण अगबय एवं अशनवचशनीय है।यह रूप कुण्डशलशन के मूलाधार में वतशमान रहता है। स्पंदन-वाणी-रूप में पश्यंती की ब्स्र्शत है। इसका स्र्ान मूलाधार से मब्णपूरक तक है। मध्यमा-वाणी-रूप के दो प्रकार हैं। (1) मध्यमा िदद (2) मध्यमा अर्श। मध्यमा िदद वह मानशसक गशत है जो दकसी पदार्श की धारणा िनाती है। मध्यमा अर्श स्र्लू या मूतश की मानशसक िाप है। जि श्रोता वैखनीरी के उछचाररत िदद को सुनता है तो उसे उसके मब्स्तष्क में त्रवद्यमान उस वाचक िदद के वाछय पदार्श का िोध होता है। यही िदद का अर्श-ग्रहण है। अध्यात्म साधना में इसका त्रवशिष्ट एवं पाररभात्रषक अर्श है। यह कुण्डशलनी जागरण से सबिर्द् है। यह आहत नाद का नहीं अत्रपतु अनाहत नाद का त्रवषय है। त्रिना दकसी आघात के उत्पन्न शचदानंद, अखनीडं, अगम एवं अलखनी रूप सूक्ष्म ध्वशनयों का प्रस्फुटन अनाहत या अनहद नाद है। इस अनाहत नाद का ददव्य संगीत सुनने से गुप्त मानशसक ित्रियाँ प्रकट हो जाती हैं। नाद पर ध्यान की एकाग्रता से धीरे-धीरे समाशध लगने लगती है। नाद के आधार पर साधक मनोलय करता हुआ ब्रह्म रूप परमपद से एकत्व स्र्ात्रपत कर लेता है। डमरू इसी नाद-साधना का प्रतीक है।

(इ) नाग या िपााः

भगवान शिव के नागेश्वर ज्योशतशलिंग नाम से स्पष्ट है दक नागों के ईश्वर होने के कारण शिव का नाग या सपश से अटूट सबिंध है। भारत में नागपचंमी पर नागों की पूजा की परबपरा है। त्रवद्वानों का अनुमान है दक नाग-पूजा आयतेर प्रभाव का प्रमाण है। त्रवरोधी भावों में सामंजस्य स्र्ात्रपत करने वाले शिव नाग या सपश जैसे कू्रर एवं भयानक जीव को अपने गले का हार िना लेते हैं। शलपटा हुआ नाग या सपश जकडी हुई कुण्डशलनी ित्रि का प्रतीक है।

(ई) चंद्रमााः

भगवान शिव के सोमनार् ज्योशतशलिंग के िारे में मान्यता है दक भगवान शिव के द्वारा सोम अर्ाशत ्चदं्रमा के श्राप का शनवारण करने के कारण यहाँ चदं्रमा ने शिवशलंग की स्र्ापना की। इसी कारण इस ज्योशतशलिंग का नाम सोमनार् प्रचशलत हुआ। सोमनार् का शिवशलंग चदं्र की भत्रि से प्रसन्न शिव का प्रतीक है। चदं्रमा मन का कारक है। यह मंगल-पराक्रम का प्रतीक है। ज्योशतष िास्त्र की दृत्रष्ट से चदं्र सत्वगुणी है। ब्जस जातक की कंुडली में चदं्र उछच एवं िुभवाला होता है, उस जातक में सतोगुण प्रकट होते हैं। वह तदनुसार आचरण करता है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के शनयंिण का भी प्रतीक है।

(उ) जटाजूटाः

भगवान शिव जटाजूटधारी हैं। इस िारे में अनेक पौराब्णक मान्यताएँ हैं। उदाहरण के शलए गंगावतरण के संदभश में लोकमान्यता है दक भगवान शिव गंगा के स्वगश से अवतरण के िाद लोक कल्याण के शलए पहले गंगा को अपनी जटाओं में समादहत करते हैं। इसके िाद जटाजूट से गंगाजल की एक पतली धारा भगीरर् के पूवशजों को तारने के शलए पथृ्वी पर प्रवादहत करते हैं।

शिव की मूशतशयों में जटायें समान रूप से प्रदशिशत नहीं हैं। नटराज के तांडव नतृ्य को प्रदशिशत करने वाली मूशतशयों में केि-पाि (जटायें) खनीलेु हुए, त्रिखनीरे हुए तर्ा उडते हुए ददखनीाये जाते हैं। इसके त्रवपरीत अन्य प्रकार की मूशतशयों में जटायें िँधी हुई ददखनीाई जाती हैं। इस अतंर के क्या प्रतीकार्श हैं।

इस दृत्रष्ट से त्रवचार करें तो शिव की जटायें ब्रहाण्ड के त्रवशभन्न लोकों की प्रतीक हैं। खनीलेु, त्रिखनीरे तर्ा उडते केि-पाि त्रवशभन्न लोकों के पारस्पररक संतुलन-चक्र के त्रिखनीराव एवं ध्वंस होने के प्रतीक हैं। त्रवशभन्न लोकों की लयिर्द्ता के नष्ट होने तर्ा सतृ्रष्ट की प्रलय-उन्मुखनीता के प्रतीक हैं। िँधी हुई जटायें त्रवशभन्न लोकों के संतुलन-चक्र की प्रतीक हैं। सतृ्रष्ट के लय-त्रवधान की प्रतीक हैं।

(ऊ) शिव का िीिरा नेत्राः

त्र्यंिकेश्वर ज्योशतशलिंग के व्युत्पत्यर्श के सबिंध में मान्यता है दक – “तीन नेिों वाले शिविंभु के यहाँ त्रवराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंिक (तीन नेि) के ईश्वर कहा जाता है। शिव के तीसरे नेि का क्या रहस्य है। इसका क्या प्रतीकार्श है। इस िारे में शनबन मत एवं धारणायें प्रचशलत हैं –

)1( तीसरे नेि का योग साधना संदशभशत प्रतीकार्श है दक कुण्डशलनी जागरण में एक चक्र को भेदने के िाद जि षटचक्र पूणश हो जाता है तो इसके िाद आत्मा का तीसरा नेि मल िून्य हो जाता है। वह स्वछि और प्रसन्न हो जाता है।

)2 ( शिव के तीसरे नेि का अर्श है दक शिव केवल दो नेिों के ही अशधपशत नहीं हैं। केवल इडा एवं त्रपंगला नादडयों के ही स्वामी नहीं हैं। वे अजपा-जप के साधक हैं। इसमें सूक्ष्म प्राण वाम भाग में ब्स्र्र इडा और दब्िण भाग में ब्स्र्त त्रपंगला के स्र्ान पर मध्य देि में ब्स्र्त सुषुबना में नीचे ऊपर संचरण करने लगता है तर्ा कभी-कभी ब्स्र्र भी होने लगता है। समाशध लगने लगती है। स्वत्रपण्ड का परत्रपण्ड से एकत्व स्र्ात्रपत हो जाता है। यही समरसता है। यही समरसीकरण है। यही स्वभाव है, समरसभाव है, अद्वयावस्र्ा है, शचदानंदमयी अदै्वतशनष्ठा है, दै्वत एवं अदै्वत अतीत परम तत्व है।

(3) कुमारस्वामी ने शिव के तीसरे नेि को प्रमब्स्तष्क (सेररब्रम) की पीयूष-ग्रंशर् (पीशनअल ग्लैंड) माना है। पीयूष-ग्रंशर् उन सभी ग्रंशर्यों पर शनयंिण रखनीती है ब्जनसे उसका सबिंध होता है। कुमारस्वामी ने पीयूष-ग्रंशर् को जागतृ, स्पंददत एवं त्रवकशसत करने की प्रदक्रयाओं का त्रववेचन दकया है। अध्यात्म साधना में चेतना ध्यानावस्र्ा में कें द्रीभूत हो पीयूष-ग्रंशर् में ब्स्र्र हो जाती है। ऐसी ब्स्र्शत में साधक को समाशध-सखुनी का अनुभव होता है। उस ब्स्र्शत में साधक की चेतना और त्रवश्व-चेतना में तादात्बय स्र्ात्रपत हो जाता है। जीव की अनुभूशत और शिव की अनुभूशत एक-रूप हो जाती है।

(त्रविेष अध्ययन के शलए द्रष्टव्यः टैक्नीक फ पशनंग द र्डश आईः महातपस्वी कुमारस्वामी, महातपस्वी श्री कुमारस्वामीजी ब्स्प्रछयुल एण्ड योगा सोसाइटी, तपोवन, धारवाड (1981))।

ए( ) नटराजाः

नटराज शिव का नतृ्य गशतिील सावशभौम ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। चार हार् चार ददिाओं (उिर, दब्िण, पूवश, पब्िम) के प्रतीक हैं। त्रिदेव के रूप में नटराज एक ब्रह्माण्डीय नतशक हैं जो गशलत-पशलत ब्रह्माण्ड को नष्ट करने और ब्रह्मा को शनमाशण की प्रदक्रया आरबभ करने के शलए नतृ्य करते हैं। इस नतृ्य का नाम तांडव है। इसे लोक में प्रलयंकारी माना जाता है। दब्िण भारत में इस नतृ्य को आनन्दतांडव कहा जाता है।

शिव का तांडव उनके क्रोध का पररचायक है। इससे प्रलंयकारी रौद्र स्वरूप का िोध होता है। रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र हैं। आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज हैं। मान्यता है दक आनन्द तांडव से सतृ्रष्ट का अब्स्तत्व है तर्ा उनके रौद्र तांडव के कारण सतृ्रष्ट का त्रवलय है।

इस दृत्रष्ट से यह ब्रह्माण्ड के उदय एवं त्रवलय का प्रतीक है। इसकी व्याख्या यह भी है दक यह शिव के परस्पर त्रवरोधी भावों का व्यंजक है। पूवश में प्रशतपाददत दकया जा चकुा है दक वे कामेश्वर या अर्द्शनारीश्वर होते हुए भी कामब्जत हैं, वीतरागी हैं। गहृस्र् होते हुए भी श्मिानवासी हैं। सौबय तर्ा आिुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। अन्य व्याख्या यह भी है दक यह ऋत (ब्स्र्र शनयम) तर्ा गशत दोनों का प्रतीक है।

नटराज के नतृ्य के प्रतीकों का गहन अध्ययन सन ्1924 में आनन्द कुमारस्वामी ने सबपन्न दकया। ( द डॉसं फ शिवाः ऍसेज न इंदडयन टश एण्ड कल्चर, न्यूयोकश ः डोवेर (1985))। इस अध्ययन ने पािात्य त्रवद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकत्रषशत दकया। उनके द्वारा दकए गए अध्ययनों में कुि अशधक महत्वपूणश हैं। वे कालक्रमानुसार शनबन हैं : (1) हेइनररखनी ब्जमेरः शमथ्स एण्ड शसबिॉल्स इन इंदडयन टश एण्ड शसत्रवलॉइजेिन (1946)। (2) जोसेफ केबपिेलः द शमशर्क इमेज (1974)। (3) फ्थःलॉहेरटी, वेण्डी डोशनगेरः शिवा - द ऍरोदटक एस्केदटक (1973)। (4) डी. एम. डूशलंगः लॉडश फ द डांस (1979)। (5) जोसेफ केमेपिेल एवं त्रिल मोयेसशः द पॉवर फ शमर् (1988)। (6) दीपक चोपडाः िॉडी, माइंड एण्ड सोल - द शमस्िी एण्ड मैब्जक (1995)। (7) डेत्रवड ब्स्मर्ः द डॉन्स फ शिवाः ररलीजन, टश एण्ड पॉयिी इन साउर् इंदडया (1996)।

उपयुशि अध्ययनों में त्रविेष रूप से नटराज की नतृ्यरत मूशतश में प्रदशिशत चार हार्ों एवं दो पैरों की ब्स्र्शतयाँ, ऊपर वाले हार् में अब्ग्नशिखनीा, दायें पैर से असुर को दिाना, चारों ओर अब्ग्न-वलय एवं खनीलेु, त्रिखनीरे, उडते हुए केि-पाि आदद का गहन प्रतीकात्मक अध्ययन सबपन्न हुआ है। इनमें मत-वैशभन्य भी हैं। यहाँ हम डमरू एवं जटायें आदद के अलावा शनबन चशचशत तर्ा महत्वपूणश प्रतीकों का सामान्य अध्ययन प्रस्तुत करेंगेः

(क) ऊपरी दाहिना एवं बायााँ िाथाः

ऊपरी दादहने हार् के डमरू से प्रसूत नाद सजृनात्मक ित्रि का द्योतक है तर्ा ऊपरी िाएँ हार् की अब्ग्न त्रवनाि की प्रतीक है। शिव एक हार् से सजृन करतें हैं तर्ा दसूरे से त्रवनाि।

(ख)शनचला दाहिना एवं बायााँ िाथाः

शनचले दादहने हार् की अभय-मुद्रा हमें आश्वस्त करती है। िायाँ पैर ऊठा हुआ है जो वतृ्रियों के ऊध्वशरेतस ्(अखनीडं एवं अनवरत ब्रह्मचयश व्रत का पालन) का प्रतीक माना जाता है। इस ऊठे हुए पाँव की ओर इंशगत करने वाले शनचले िाएँ हार् का प्रतीकात्मक अर्श यह है दक शिव ऊध्वशरेतस-् मागश की ओर चलने के शलए मागश प्रदिशन कर रहे हैं। जो साधक धमाशनुसार आचरण करता है, वह अज्ञान एवं पाप-कमश से मुि हो जाता है। वह शनभशय हो जाता है। साधना-पर् पर चलने के शलए यह अशनवायश ितश है। इसका अर्श यह भी है दक शिव के चरणों में ही कल्याण है। इसकी व्याख्या यह भी है दक ऊठा हुआ पाँव हार्ी की सूँड की आकृशत िनाता है ब्जसका प्रतीक गणेि है। गणेि, जो शिव के पुि हैं। गणेि, जो त्रवघ्नत्रवनािक हैं। उनके दादहने पैर के नीचे कुचला हुआ असुर है। इस असुर को अपस्मारपुरुष के नाम से अशभदहत दकया गया है। अपस्मार का अर्श है – स्मरण ित्रि का अभाव। इस नाते यह अज्ञान का प्रतीक है ब्जसका त्रवनाि शिव करते हैं।शिव पाि से आिर्द् पिु को पािमुि करते हैं।

(ग)चि हदाक अक्ग्न की लपटें :

चारों ओर उठ रही अब्ग्न की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। िौर्द् दिशन में शनवाशण में दीपक की अब्ग्न-ज्योशत िुझ जाती है। िैव मत में शिव अब्ग्न के मूतश रूप से समरसीकरण कर, नतृ्य करते हैं। अब्ग्न से शघरे होने के िावजूद आनन्द तांडव में आनन्दरूप हो जाते हैं।

अन्त में यह कहा जा सकता है दक नटराज शनमाशण और त्रवनाि का, वासना और तप का, ब्स्र्रता और गत्यात्मकता का, जीवन और मतृ्यु का प्रतीक है। नटराज का रौद्र तांडव और आनन्द तांडव अनन्त त्रवरोधाभासों और दं्वद्वों का ददव्य एवं भव्य अलौदकक समरसीकरण है। इसकी पररणशत अखनीडं आनन्द है।

शिव पूजन में अत्रपशत पदार्ों के भी प्रतीकार्श हैं। सामान्य व्यत्रि शिव पूजन के शनशमि वब्णशत पदार्ों का लौदकक अर्श ग्रहण करता है। उदाहरण के शलए शिव भत्रि के शलए अत्रपशत दकए जाने वाले पुष्पों का अर्श विृों पर लगने वाले फूलों से शलया जाता है। ताब्त्वक दृत्रष्ट से अध्यात्म- साधना में पुष्पों से अशभप्राय मानशसक पुष्पों से है। अष्ट पुष्पों का प्रतीकात्मक अर्श हैः

1. प्रर्म पुष्प – अदहंसा 2. दद्वतीय पुष्प – इब्न्द्रय शनग्रह 3. ततृीय पुष्प – दया 4. चतुर्श पुष्प – भाव 5. पंचम पुष्प – िमा 6. षष्ठ पुष्प – क्रोध से रदहत होना 7. सप्तम पुष्प – ध्यान 8. अष्टम पुष्प – ज्ञान

इसी प्रकार सामान्यतः प्रत्येक धमश एवं सबप्रदाय में मंिों के जाप करने का त्रवधान है। जाप के समय माला के दानों को फेरने का िाह्याचरण है। तत्वतः मंि-साधना िाह्यमुखनी से लौदकक भाषा के वणों का उछचारण करना नहीं है। यदद मन का िोधन नहीं हुआ, राग-दे्वष त्रवहीनता की ब्स्र्शत नहीं आई तो केवल मंिों में प्रयुि वणों के उछचारण की कोई सार्शकता नहीं है। िाह्य जप में मंि के वणों या अिरों का िाह्यमुखनी से उछचारण होता है। जि जप सहज साधना का अगं हो जाता है तो जप अपने-आप भीतर-भीतर चलता रहता है। ऐसी ब्स्र्शत में जप साधना नहीं अत्रपतु स्वभाव हो जाता है। यह स्वर-व्यंजन का उछचारण नहीं रह जाता। यहाँ पहँुचकर नाद सदहत मंि का स्फोट होता है। मंि का स्फुरण होता है। यह नाद-साधना की प्रर्म अवस्र्ा है। हमारा उदे्दश्य नाद की ब्रह्म-साधना की त्रववेचना एवं मीमांसा करना नहीं है। हम केवल यह इंशगत करना चाहते हैं दक साधना के सभी अगं-उपांगों के प्रतीकात्मक अर्श हैं। इनका उदे्दश्य मन की िुत्रर्द् की प्रदक्रया की ओर साधक को उन्मुखनी करना है। इनका लक्ष्य शचि की वतृ्रियों का पररष्कार एव ंउन्नयन करते हुए चेतना को ऊध्वशमुखनीी िनाना है। यह िाहर से िुरु कर अन्दर की गहराइयों में उतरना है; पािों के िंधनों से अपने को मुि करने की ओर कदम िढाना है।

मिाशिवरावत्राः

महाशिवरात्रि शिवत्व का जन्म ददवस है। मान्यता है दक भगवान शिव इस ददन ज्योशतशलिंग रूप में प्रकट हुए रे्। फाल्गुन कृष्ण चतुदशिी को महाशिवरात्रि का पवश मनाया जाता है। यह पवश महाकाल शिव की आराधना का महापवश है। ऐसी मान्यता है दक इस ददन पारणा करने पर उपासक को समस्त तीर्ों के स्नान का फल प्राप्त होता है। शिवरात्रि का उपवास नहीं करने पर वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अतं में शिवलोक में जाते हैं। शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चादहए। शिव को त्रिल्वपि, धतूरे के पुष्प तर्ा प्रसाद में भांग अशत त्रप्रय हैं। लौदकक दृत्रष्ट से दधू,दही,घी,िकर,िहद -, इन पाँच अमतृों (पंचामतृ) का पूजन में उपयोग करने का त्रवधान है। महामतृ्युंजय मंि शिव आराधना का महामंि है। शिव रात्रि वह समय है जो पारलौदकक, मानशसक एव ं

भौशतक तीनों प्रकार की व्यर्ाओं, संतापों, पािों से मुि कर देता है। शिव की रात िरीर, मन और वाणी को त्रवश्राम प्रदान करती है। िरीर, मन और आत्मा को ऐसी िाब्न्त प्रदान करती है ब्जससे शिव तत्व की प्राशप्त

सबभव हो पाती है। शिव और ित्रि का शमलन गशतिील ऊजाश का अन्तज्ञाशत से एकात्म होना है। लौदकक

जगत में शलंग का सामान्य अर्श शचह्न होता है ब्जससे पुब्ल्लंग, स्त्रीशलंग और नपुंसक शलंग की पहचान होती है। शिव शलंग लौदकक के परे है। इस कारण एक शलंगी है। आत्मा है। शिव संहारक हैं। वे पापों के संहारक हैं। लय की शनमशशत के शलए प्रलय करते हैं। अवरोधक गशलत एव ंपशलत तत्वों का त्रवनाि कर नव जीवन प्रदान

करते हैं।

शिव रात्रि की सार्शकता रात भर िलात ्जागना नहीं हैं; जोर जोर से चीखनी चीखनी कर भजन गाना नहीं है। यह जागशृत का पवश है। यह आत्म स्वरूप को जानने की रात्रि है। यह स्वयं के भीतर जाकर अर्वा अतंिेतना की गहराइयों में उतरकर आत्म सािात्कार करना है। काल के इस िण की सार्शकता शिव सायुज्य प्राप्त करने में है; शिवमय हो जाने में है। ित्रि माया नहीं है, शमथ्या नहीं है, प्रपंच नहीं है। इसके त्रवपरीत ित्रि सत्य है। जीव और जगत भी सत्य है। सभी तत्वतः सत्य हैं। सभी शिवमय हैं। शिव और ित्रि भाषा के धरातल पर भेदक हैं; शभन्न हैं। तत्वतः एक के ही दो रूप हैं। अशभन्न हैं। त्रवश्वदृत्रष्ट से देखनीने पर, सतृ्रष्ट और संहार की दृत्रष्ट से देखनीने पर, उन्मेष और शनमेष को लक्ष्य करके देखनीने पर, शिव और ित्रि परृ्क प्रतीत होते हैं। शचदंि शिव भाव और आनन्दांि ित्रि भाव तत्वतः परस्पर शमले हुए हैं; अशभन्न हैं।(आददनार् ंमहाशसरं्द् ित्रियुिं जगद् गुरुम।्)।

इस लेखनी का समापन आदद गुरू िंकराचायश द्वारा रशचत शिवाष्टक से करना समीचीन होगाः तस्मै नम: परमकारणकारणाय , ददप्तोज्ज्वलज्ज्वशलत त्रपङ्गललोचनाय ।

नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय , ब्रह्मेन्द्रत्रवष्णुवरदाय नम: शिवाय ॥ 1 ॥

कारणों के भी परम कारण हैं। अशत दीप्त, उज्ज्वल एवं त्रपङ्गल नेिोंवाले हैं। सपों के हार-कुण्डल आदद से भूत्रषत हैं। ब्रह्मा, त्रवष्णु, इन्द्रादद को भी वर देने वालें हैं। ऐसे शिव जी को नमस्कार। श्रीमत्प्रसन्निशिपन्नगभूषणाय , िैलेन्द्रजावदनचबु्बितलोचनाय । कैलासमन्दरमहेन्द्रशनकेतनाय , लोकियाशतशहरणाय नम: शिवाय ॥ 2 ॥

शनमशल चन्द्र कला तर्ा सपों द्वारा भूत्रषत एवं िोभायमान हैं। पावशती अपने मुखनी से उनके लोचनों का चबुिन करती हैं। कैलास एवं महेन्द्रशगरर उनका शनवासस्र्ान है। त्रिलोक के द:ुखनी को दरू करनेवाले हैं। ऐसे शिव जी को नमस्कार। पद्मावदातमब्णकुण्डलगोवषृाय , कृष्णागरुप्रचरुचन्दनचशचशताय । भस्मानुषित्रवकचोत्पलमब्ल्लकाय , नीलादजकण्ठसदृिाय नम: शिवाय ॥ 3 ॥

स्वछि पद्मराग मब्ण के कुण्डलों से दकरणों की वषाश करने वाले हैं। अगरू तर्ा चन्दन से चशचशत हैं। भस्म, प्रफुब्ल्लत कमल और जूही से सुिोशभत हैं। ऐसे नीलकमल के समान कण्ठवाले शिव को नमस्कार । लबित्स त्रपङ्गल जटा मुकुटोत्कटाय , दंष्ट्राकरालत्रवकटोत्कटभैरवाय । व्याघ्राब्जनाबिरधराय मनोहराय , त्रिलोकनार्नशमताय नम: शिवाय ॥ 4 ॥

लटकती हुई त्रपङ्गवणश जटाओं के मुकुट को धारण करने से उत्कट जान पडते हैं। तीक्ष्ण दाँतों के कारण अशत त्रवकट और भयानक प्रतीत होते हैं। व्याघ्र की खनीाल धारण दकए हुए हैं। अशत मनोहर हैं। तीनों लोकों के अशधश्वर उनके चरणों में झुकते हैं। ऐसे शिव जी को नमस्कार। दिप्रजापशतमहाखनीनािनाय , ब्िप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय । ब्रह्मोब्जशतोध्वशगक्रोदटशनकंृतनाय , योगाय योगनशमताय नम: शिवाय ॥ 5 ॥

दिप्रजापशत के महायज्ञ को ध्वंस कर ददया। परम ्त्रवकट त्रिपुरासुर का तत्काल अन्त कर ददया। दपशयुि ब्रह्मा के ऊध्वशमुखनी को काट ददया। ऐसे शिव जी को नमस्कार। संसारसतृ्रष्टघटनापररवतशनाय , रि: त्रपिाचगणशसर्द्समाकुलाय । शसर्द्ोरगग्रहगणेन्द्रशनषेत्रवताय , िादूशलचमशवसनाय नम: शिवाय ॥ 6 ॥

संसार मे घदटत होने वाली समस्त घटनाओं में पररवतशन करने में सिम हैं। त्रपिाच एवं शसर्द् सभी गणों की रिा करते हैं। शसर्द्, सपश, ग्रह एवं इन्द्रादद इनकी सेवा करते हैं। व्याघ्र की खनीाल

धारण करते हैं। ऐसे शिव जी को नमस्कार। भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय , सौबयावदातवनमाशश्रतमाशश्रताय । गौरीकटािनयनाधशशनरीिणाय , गोिीरधारधवलाय नम: शिवाय ॥ 7 ॥

अपने अगंों पर भस्म लेप के कारण मनोहर रूपवाले हैं। सौबय एवं सुन्दर वन का आश्रय करने वाले इनके आशश्रत हैं। श्री पावशतीजी कटाि नेिों द्वारा इनका शनरीिण करती हैं। गाय के दधू की धारा के समान धवल हैं। ऐसे शिव जी को नमस्कार। आददत्य सोम वरुणाशनलसेत्रवताय , यज्ञाब्ग्नहोिवरधमूशनकेतनाय । ऋक्सामवेदमुशनशभ: स्तुशतसंयुताय , गोपाय गोपनशमताय नम: शिवाय ॥ 8 ॥

सूयश, चन्द्र, वरूण और पवन इनकी सेवा करते हैं। यज्ञ एवं अब्ग्नहोि धमूमें इनका शनवास है। ऋक-सामादद वेद तर्ा मुशनजन इनकी स्तुशत करते हैं। गायों की रिा करते हैं। ऐसे शिव जी को नमस्कार।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

(सेवा-शनविृ शनदेिक, केन्द्रीय दहन्दी संस्र्ान, भारत सरकार, आगरा)

123, हरर एन्कलेव, चाँदपुर रोड

िुलन्द िहर (उिर प्रदेि) त्रपन- 203001

[email protected]